आज मैं श्रेष्ठ हिन्दी नवगीतकार स्वर्गीय नईम जी का एक नवगीत प्रस्तुत कर रहा हूँ| उनकी कुछ कविताएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय नईम जी का यह नवगीत –

कुछ भी तो अब
तन्त नहीं है-
ऊपरवाले की लाठी में।
दीमक चाट गयी है शायद-
ये भी ऊपरवाला जाने,
भुस में तिनगी जिसने डाली-
वही जमालो खाला जाने।
हम तो खड़े हुए हैं
घर के
पानीपत हल्दीघाटी में।
दो ही दिन में बासी
लगने लगते हैं परिवर्तन
प्रगतिशील होकर आते
घर-घर में अब ऋण।
अपने को
रूँधा कुम्हार सा,
कस ही नहीं रहा माटी में।
श्रृद्धापक्ष ही नहीं, किन्तु अब
उनकी बारहमास छन रही,
पात्र-कुपात्र न देखे भन्ते !
कच्ची, क्वाँरी कोख जन रही।
तेल नहीं रह गया
हमारी
परम्परा औ’ परिपाटी में।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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