16. घर, शहर, दीवार, सन्नाटा- सबने हमें बांटा

जिस प्रकार लगभग सभी के जीवन में भौतिक और आत्मिक स्तर पर घटनाएं होती हैं, जिनको शेयर करना समीचीन होता है। मैं प्रयास करूंगा कि जहाँ तक मेरी क्षमता है, मैं रुचिकर ढंग से इन  घटनाओं को आपके सपने रखूं। इस क्रम में अनेक नगर, व्यक्ति और उल्लेखनीय घटनाएं शामिल होंगी, लेकिन मेरा ऐसा इरादा एकदम नहीं है कि मैं इसे निजी जीवन की कहानी बनाऊं।

दिल्ली, शाहदरा जो कि लंबे समय तक मेरी कर्मभूमि और अनुभूतिस्थल थे छूटने वाले हैं, इससे पहले मैं एक-दो ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख ज़रूर करना चाहूंगा जिनसे मैं बड़ी हद तक प्रभावित हुआ हूँ।

एक हैं- श्री रमेश रंजक, नवगीत के एक ऐसे हस्ताक्षर जो सृजन के मामले में बहुत प्रभावी, ईमानदार और वज़नदार थे। उनका रहन-सहन तो शायद आदर्श नहीं कहा जाएगा, लेकिन कविता के प्रति उनकी ईमानदारी बेजोड़ थी। यह भी सही है कि अच्छी कविता यदि वे अपने दुश्मन से भी सुनें तो उसकी तारीफ किए बिना नहीं रह सकते थे।

‘गीत विहग उतरा’ और ‘हरापन नहीं टूटेगा’ उनके प्रारंभ के संकलन थे, जिनसे उनकी अमिट छप बन गई थी। बाद में तो उनके अनेक संकलन आए। कविता के प्रति उनकी ईमानदारी इन पंक्तियों में झलकती है-

वक्त तलाशी लेगा, वो भी चढ़े बुढ़ापे में

संभलकर चल।

वो जो आएंगे, छानेंगे कपड़े बदल-बदल

संभलकर चल।

मुझे याद है, मैं घर में बच्चों को उनके गीत सुनाकर बहलाता रहता था, खैर उसमें कांटेंट की नहीं, गायन की भूमिका होती थे, लेकिन मैं गाता था क्योंकि वे गीत मुझे बहुत प्रिय थे।

जैसे-

घर, शहर, दीवार, सन्नाटा

सबने हमें बांटा। 

सख्त हाथों पर धरी आरी,

एक आदमखोर तैयारी,

गर्दन हिली चांटा।

सबने हमें बांटा।।

एक और गीत की कुछ पंक्तियां-

दोपहर में हड्डियों को शाम याद आए

और डूबे दिन हज़ारों काम याद आए।

 

काम भी ऐसे कि जिनकी आंख में पानी

और जिनके बीच मछली सी परेशानी

क्या बताएं, किस तरह से

राम याद आए।

 

घुल गई है खून में जाने कहाँ स्याही,

कर्ज़ पर चढ़ती हुई मायूस कोताही,

तीस दिन के एक मुट्ठी

दाम याद आए।  

श्रीकृष्ण तिवारी जी के एक गीत की कुछ पंक्तियां हैं-

धूप में जब भी जले हैं पांव

घर की याद आई।

रेत में जब भी थमी है नाव,

घर की याद आई।

इस गीत की संवेदना सभी की समझ में आती है, घर से दूर रहकर घर की जो कमी खटकती है।

अब इसी गीत को पढ़कर, रंजक जी ने एक गीत लिखा-

धूप में जब भी जले हैं पांव

सीना तन गया है,

और आदमकद हमारा

ज़िस्म लोहा बन गया है।

हम पसीने में नहाकर हो गए ताज़े,

खोलने को बघनखों के बंद दरवाजे,

आदमी की आबरू की ओर से सम्मन गया है।

अब यदि दोनों गीतों को साथ रखकर देखें तो तिवारी जी का गीत अधिक सहज है। लेकिन दोनों स्वतंत्र गीत हैं और यह कह सकते हैं कि रंजक जी का यह गीत ज्यादा जुझारू है।

खैर मेरा उद्देश्य गीतों पर बहस करना नहीं है। मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि रंजक जी के गीतों से मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ।

एक बार कवि गोष्ठी में उन्होंने मेरा एक गीत सुना और कहा कि ये मुझे लिखकर दे दो, मैं इसे प्रकाशित कराऊंगा। वो गीत पहले ही छप चुका था अतः मैंने उन्हें दूसरा गीत लिखकर दिया और उन्होंने उसे श्री नचिकेता जी द्वारा संपादित अंतराल-4 में छपवाया, जो प्रतिनिधि नवगीतों का संकलन था। ये वास्तव में रंजक जी का बड़प्पन ही था।

अपना वह नवगीत मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, इसमें शाम के चित्र हैं-

जला हुआ लाल कोयला

राख हुआ सूर्य दिन ढले।

 

होली सी खेल गया दिन

रीते घट लौटने लगे,

दिन भर के चाव लिए मन

चाहें कुछ बोल रस पगे,

महानगर में उंडेल दूध,

गांवों को दूधिए चले।

राख हुआ सूर्य दिन ढले।।

 

ला न सके स्लेट-पेंसिलें

तुतले आकलन के लिए,

सपनीले खिलौने नहीं

प्रियभाषी सुमन के लिए,

कुछ पैसे जेब में बजे

लाखों के आंकड़े चले।

राख हुआ सूर्य दिन ढले।।

मैं अपने जीवन के रोचक और रोमांचक संस्मरण आपसे शेयर करूंगा, अभी एक-दो ऐसे कवियों,व्यक्तित्वों के बारे में बात कर लूं, जिनसे मैं दिल्ली में बहुत प्रभावित हुआ, क्योंकि दिल्ली छूटने के बाद यह बात नहीं हो पाएगी।

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