33. कैसे मनाऊं पियवा, गुन मेरे एकहू नाहीं।

इस प्रस्ताव को सहमति मिल गई थी कि एनटीपीसी के स्थापना दिवस के अवसर पर, विंध्याचल परियोजना में नितिन मुकेश जी, अथवा दो-तीन फिल्मी गायक और थे, उनमें से किसी एक को चुनकर आमंत्रित किया जाए, इसके लिए तीन सदस्यों की एक समिति को मुंबई भेजा गया, इसमें मेरे अलावा एक कर्मचारी कल्याण परिषद के महासचिव थे और एक वित्त विभाग के प्रतिनिधि थे।

मेरे बाकी दो साथियों के लिए नितिन मुकेश जी भी वैसे ही थे, जैसे बाकी विकल्प थे, इसलिए मुझे इस विकल्प पर ज्यादा जोर लगाना था, खैर परिस्थितियों ने भी साथ दिया और हम नितिन जी के विकल्प पर मुहर लगाने वाले थे।

हम नितिन जी के घर पहुंचे और मुझे श्रीमती मुकेश जी के चरण स्पर्श करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ,जो व्हील चेयर पर थीं। घर में जहाँ पुरस्कारों की विशाल प्रदर्शनी लगी थी वहीं नील नितिन मुकेश के स्कूल की किसी सांस्कृतिक गतिविधि में पुरस्कृत होने का प्रमाण पत्र भी दीवार पर टंगा था। उस समय नील स्कूल में पढ़ रहे थे।

अपनी परंपरा के अनुसार हमने अनुबंध का एक ड्राफ्ट, नितिन जी को हस्ताक्षर करने के लिए दिया, जिसमें एक पंक्ति कुछ इस प्रकार थी- ‘दोनों पक्ष हर स्थिति में अनुबंध के अनुसार यह कार्यक्रम संपन्न करेंगे।‘

इस पर नितिन जी ने कहा- ‘शर्माजी, सब कुछ तो इंसान के हाथ में नहीं होता, कुछ चीज़ें तो ऊपर वाला अपने हाथ में रखता है।‘ इसके बाद उस पंक्ति को इस तरह लिखा गया- ‘दोनो पक्ष अनुपालन का पूर्ण प्रयास करेंगे।’

इसके बाद मुझे एक घटना रीवा की मालूम हुई, जहाँ नितिन जी कार्यक्रम के लिए गए थे, लेकिन जोरदार बारिश के कारण उस दिन कार्यक्रम नहीं हो पाया, नितिन जी अगले दिन रुके, कार्यक्रम के शुरू में बूंदाबांदी हो रही थी, लेकिन नितिन जी ने, अपनी परंपरा के अनुसार- ‘मंगल भवन, अमंगल हारी’ से कार्यक्रम का प्रारंभ किया और जो छाते खुले थे, वे धीरे-धीरे बंद हो गए, और फिर कार्यक्रम पूरा होने के बाद ही जोरदार बारिश हुई।

खैर, जैसा कार्यक्रम तय किया गया था, उसके हिसाब से नितिन जी फ्लाइट लेकर और उनकी टीम के सदस्य ट्रेन द्वारा, वाराणसी पहुंचे। वाराणसी के सिगरा क्षेत्र में उस समय एनटीपीसी का गेस्ट हाउस था जहाँ नितिन जी की टीम के सदस्यों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी और नितिन जी के लिए पास के एक होटल में प्रबंध किया गया था, परंतु नितिन जी ने कहा कि वे टीम के साथ ही रुकेंगे। उनकी टीम में कुछ सदस्य, उनके पिता के समय से हैं, एक हैं जिनको वे मामा कहते थे।

नितिन जी के एक साथी ने बताया कि मुकेश जी जहाँ अपना हारमोनियम बजाते हुए, डूबकर गाना गाते रहते थे, वहीं नितिन जी पूरा धमाल मचाते हैं।

अपनी परंपरा के अनुसार नितिन जी वाराणसी के मंदिरों में गए, उन्होंने बताया कि इधर आने में उनको एक लाभ यह भी लगा कि वे मंदिरों के दर्शन कर लेंगे। दर्शन के समय मैं उनके साथ था। उन्होंने गौदोलिया चौक पर पुलिस वाले को अपना कार्ड दिखाया, उसके बाद एक पुलिस वाला हमारे साथ रहा और सभी जगह हमने वीआईपी दर्शन किए।

काशी विश्वनाथ मंदिर के बाहर हर दुकानदार उनसे कहता रहा कि आपके पिता जी हमारे यहाँ से ही सामग्री खरीदते थे, आप भी हमसे ही सामान लीजिए।

गंगा घाट पर तीन तरह के लोग मिले, एक जो नितिन जी को पहचानते थे, दूसरे जो उनको शम्मी कपूर समझ रहे थे और तीसरे वे जो उनको अंग्रेज समझ रहे थे।

वाराणसी से हम विंध्यनगर आए, शाम को मुक्ताकाश प्रेक्षागृह में उनका कार्यक्रम था। उन्होंने अपनी परंपरा के अनुसार ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ के साथ अपना कार्यक्रम प्रारंभ किया और उसके बाद, मुकेश जी के 15-20 अमर गीत एक के बाद एक,  सुना दिए, फर्माइशें पूरा करने से पहले, क्योंकि उनका कहना था कि एक बार फास्ट गानों का सिलसिला शुरू हो जाएगा, तब शायद इन गीतों के लिए माहौल नहीं रह पाएगा।

अब अगर गीतों का ज़िक्र करूं तो किनका करूं? सैंकड़ों फर्माइशी पर्चियां तो ऐसी हैं, जिनका नंबर आ ही नहीं पाया। संगीत के प्रोग्राम तो पहले भी बहुत हुए थे, लेकिन श्रोताओं में इतना उत्साह कभी नहीं देखा गया। महफिलें जमाने वाले तो हज़ारों गीत हैं, किस-किसका ज़िक्र करूं?

लेकिन कुछ गीतों का ज़िक्र इसलिए कर दे रहा हूँ, क्योंकि संभव है, नई पीढ़ी के कुछ लोगों को उनके नाम से ये गीत न याद हों- ‘होठों पे सच्चाई रहती है, कहीं दूर जब दिन ढ़ल जाए, तौबा ये मतवाली चाल, रुक जा ओ जाने वाली रुक जा, सारंगा तेरी याद में, सुहाना सफर और ये मौसम हसीं, झूमती चली हवा, मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने, मैं पल दो पल का शायर हूँ, देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, ओ महबूबा, तेरे दिल के पास ही है मेरी, मंज़िल ए मक़सूद  आदि  …  सैंकड़ों गीत मैं लिख सकता हूँ, जो आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं।

  मुकेश जी का स्मरण करते हुए, मैं उनके गाए कुछ ऐसे गीतों की पंक्तियां यहाँ दे रहा हूँ, जो शब्दों और प्रस्तुति, दोनों के लिहाज़ से, अलग तरह के हैं-

कैसे मनाऊं पियवा, गुन मेरे एकहू नाहीं।

आई मिलन की बेला, घबराऊं मन माही।

 

साजन मेरे आए, धड़कन बढ़ती जाए,

नैना झुकते जाएं, घूंघट ढलका जाए,

तुझसे क्यों शर्माये, आज तेरी परछाई।

 

मैं अनजान पराई, द्वार तिहारे आई,

तुमने मुझे अपनाया, प्रीत की रीत सिखाई,

हाय रे मन की कलियां, फिर भी खिल ना पाईं।

एक और गीत की कुछ पंक्तियां –

पुकारो, मुझे नाम लेकर पुकारो,

मुझे इससे अपनी खबर मिल रही है।

कई बार यूं भी हुआ है सफर में,

अचानक से दो अजनबी मिल गए हों,

जिन्हें रूह पहचानती हो अज़ल से,

भटकते-भटकते वही मिल गए हों।

कुंवारे लबों की कसम तोड़ दो तुम,

ज़रा मुस्कुराकर बहारें संवारो।

 

खयालों में तुमने भी देखी तो होंगी

कभी मेरे ख्वाबों की धुंधली लकीरें,

तुम्हारी हथेली से मिलती हैं जाकर,

मेरे हाथ की ये अधूरी लकीरें।

बड़ी सर चढ़ी हैं ये ज़ुल्फें तुम्हारी,

ये ज़ुल्फें मेरी बाज़ुओं में उतारो।  

 

पुकारो, मुझे नाम लेकर पुकारो,

मुझे इस से अपनी खबर मिल रही है।।

और इसके बाद आखिर में-

ज़िंदगी सिर्फ मोहब्बत नहीं, कुछ और भी है।

ज़ुल्फ-ओ-रुखसार की जन्नत नहीं, कुछ और भी है।

भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में,

इश्क़ ही एक हक़ीकत नहीं कुछ और भी है।

तुम अगर नाज़ उठाओ, तो ये हक़ है तुमको,

मैंने तुमसे ही नहीं, सबसे मोहब्बत की है।

इन शब्दों के साथ, नितिन जी के कार्यक्रम के बहाने मैं अपने प्रिय गायक, मुकेश जी की स्मृतियों को विनम्र श्रद्धांजलि देता हूँ और कामना करता हूँ कि नितिन जी लंबे समय तक, मुकेश जी के गीतों का अमृत पान श्रोताओं को कराते रहें।

अंत में मन हो रहा है कि मैं अपना एक गीत शेयर करूं। यह गीत मैंने दिल्ली में, सर्दी की एक रात में, ट्रेन से शाहदरा लौटते हुए लिखा था, जब मैं मुकेश जी का गीत ( मैं ढ़ूंढ़ता हूँ उनको) गुनगुना रहा था। ये पैरोडी नहीं है, सिर्फ मुखड़े की पंक्तियों को ध्यान में रख सकते हैं-

रात शीत की  

रजनी गुज़र रही है, सुनसान रास्तों से

गोलाइयों में नभ की, जुगनू टंके हुए हैं।

 

हर चीज़ पर धुएं की,एक पर्त चढ़ गई है,

कम हो गए पथिक पर, पदचाप बढ़ गई है,

यह मोड़ कौन सा है, किस ओर जा रहा मैं,

यूं प्रश्न-चिह्न धुंधले, पथ पर लगे हुए हैं।

 

अब प्रश्न-चिह्न कल के, संदर्भ हो गए हैं,

कुछ तन ठिठुर- ठिठुरकर, निष्कंप सो गए हैं,

कितने बंटे हैं कंबल, अंकित है फाइलों में,

फुटपाथ के कफन पर, किसके गिने हुए हैं।

 

अब सो चुकी है जल में, परछाइयों की बस्ती,

चंदा ही खे रहा है, बस चांदनी की कश्ती,

चिथड़ों में गूंजती हैं, अब कर्ज़दार सांसें,

पर ब्याज के रजिस्टर, अब भी खुले हुए हैं।

                                                                      (श्रीकृष्ण शर्मा)

आज कुछ ज्यादा समय ले लिया आपका, नमस्कार।

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