34. टूटी आवाज़ तो नहीं हूँ मैं

अक्सर मैं ब्लॉग लिखने के बाद, सोचता हूँ कि इसमें कौन सी कविता डालनी है, क्या शीर्षक देना है। आज शुरू में ही कुछ काव्य पंक्तियां याद आ रही हैं और उनमें से ही शीर्षक भी, तो शुरू में ही दे देता हूँ, यहाँ तो अपना ही अनुशासन है ना!

हम सबके माथे पर शर्म,

हम सबकी आत्मा में झूठ,

हम सबके हाथों में टूटी तलवारों की मूठ,

हम हैं सैनिक अपराजेय!

                        ( डा. धर्मवीर भारती)

 

फैली है दूर तक परेशानी,

तिनके सा तिरता हूँ तो क्या है,

तुमसे नाराज़ तो नहीं हूँ मैं।

 

मैं दूंगा भाग्य की लकीरों को

रोशनी सवेरे की,

देखूंगा कितने दिन चलती है

दुश्मनी अंधेरे की।

मकड़ी के जाले सी पेशानी

साथ लिए फिरता हूँ तो क्या है

टूटी आवाज़ तो नहीं हूँ मैं।

                        (श्री रमेश रंजक)

एक कवि थे, गाज़ियाबाद के, रमेश शर्मा जी, मंचों पर सक्रिय नहीं थे परंतु बहुत अच्छे गीत लिखे हैं उन्होंने, दो पंक्तियां तो गांव की दशा का अच्छा खासा बयान करती हैं-

ना वे रथवान रहे, ना वे बूढ़े प्रहरी,

कहती टूटी दीवट, सुन री उखड़ी देहरी।

(दीवट- दिया रखने के लिए बना छोटा सा आला)

 (और जब वे लंबा आलाप लेकर गाते थे, तब दिव्य माहौल बन जाता था)

उनके एक गीत की कुछ पंक्तियां-

तू न जिया न मरा।

ज्यों कांटे पर मछली, प्राणों में दर्द पिरा।

औषधि जल, तुलसी-दल, सिरहाने बिगलाया,

मां ने ईंधन कर दी, अपनी उत्फुल काया,

धरती पर देह धरम, आजीवन हूक भरा।

 

सहजन की डाल कटी, ताल पर जमी काई,

कथा अब नहीं कहता, मंदिर वाला साईं,

वैष्णव जन ही जाने, वैष्णव जन का दुखड़ा।

 

 

एक और –

कैसे बीते दिवस हमारे

हम जानें या राम।

सुन रे जल, सुन री ओ माटी

सुन रे ओ आकाश।

सुन रे ओ प्राणों के दियना,

सुन रे ओ वातास,

दुख की इस तीरथ यात्रा में

पल न मिला विश्राम।

हम जानें या राम।

कविताएं शेयर करने का काम फिलहाल इतना ही। अपनी राम कहानी में यह कि 12 वर्ष तक विंध्याचल परियोजना में रहने के बाद मैं प्रबंधक बन गया था, कोई चांस नहीं लग रहा था यहाँ से कहीं और जाने का, लेकिन मुंबई कार्यालय, पश्चिम क्षेत्र मुख्यालय में, विशेष रूप से जनसंपर्क का काम देखने के लिए एक अधिकारी की आवश्यकता थी, वैसे भी मुंबई नगरी बहुतों को आकर्षित करती है, मुझे तो हमेशा से करती रही है। पदोन्नति के समय मैंने मुंबई का विकल्प दिया था।

हमारे बॉस रहे श्री अविनाश चंद्र चतुर्वेदी जी मुंबई में मानव संसाधन विभाग के प्रमुख बन गए थे, उनसे अनुरोध किया और उनके प्रयास से मेरा स्थानांतरण भी हो गया मुंबई में, और इस प्रकार नए सपने लेकर मैं उस मायानगरी में पहुंचा।

एक अंग्रेजी फिल्म देखी थी- ‘कांक्वरर्स ऑफ द गोल्डन सिटी’ बड़े शहर में अक्सर लोग ऐसे ही इरादे लेकर जाते हैं, जैसे शायद धीरू भाई अंबानी लेकर गए होंगे। लेकिन अधिकांश के साथ महानगर, इसका कुछ उल्टा ही करता है।

वैसे किस्मत भी अजीब चीज़ होती है। मुझे नीता जी का किस्सा याद आ गया, जो उन्होंने खुद कहीं शेयर किया था। जान-बूझकर मैं अभी पूरा नाम नहीं लिख रहा हूँ। तो नीता जी उन दिनों नृत्य के कार्यक्रम प्रस्तुत करती थीं। एक रोज़ उनके घर फोन आया- ‘मैं धीरूभाई अंबानी बोल रहा हूँ’। उन्होंने कहा मैं क्लिओपेट्रा बोल रही हूँ (शायद कोई और प्रसिद्ध नाम बोला था, मुझे यह याद आ रहा है) और कहकर फोन रख दिया। उनको लग रहा था कि कोई मज़ाक कर रहा है। ऐसा दो-तीन बार हुआ, उसके बाद उन्होंने फोन उठाना बंद कर दिया। बाद में जब फोन बज रहा था तो उनके पिता ने फोन उठाया तब अंबानी जी ने उनको बताया कि उनके बेटे (मुकेश अंबानी) ने नीता जी का प्रोग्राम देखा था, वे उनको बहुत पसंद आईं और वे शादी की बात करने आना चाहते हैं। ऐसे होता है, जब किस्मत जबर्दस्ती पीछे पड़ जाती है। इस प्रकार नीता जी, नीता अंबानी हो गईं।

खैर, मैं भी मुंबई गया क्योंकि कंपनी मुंबई में रहने के लिए क्वार्टर दे रही थी, नौकरी तो करनी ही थी, उसके अलावा मुंबई क्या कुछ नहीं दे सकती, किसी भी फील्ड में, मेरे सपने क्रिएटिव फील्ड से जुड़े थे।

जिस तरह देश पुकारता है, मुझे लगता था कि मुंबई में बने फिल्मी स्टूडिओ, टीवी चैनल, मेरा ही इंतज़ार कर रहे हैं।

अब आगे की कहानी बाद में कहेंगे,

फिलहाल नीरज जी का एक मुक्तक-

खुशी जिसने खोजी वो धन लेके लौटा

हंसी जिसने खोजी चमन लेके लौटा

मगर प्यार को खोजने जो चला वो,

न तन लेके लौटा, न मन लेके लौटा।

 

 

 नमस्कार।

============

Leave a Reply