कुछ ऐसी पुरानी कविताएं, जो पहले कभी शेयर नहीं की थीं, वे अचानक मिल गईं और मैंने शेयर कर लीं, आज इसकी आखिरी कड़ी है। अपनी बहुत सी रचनाएं मैं शुरू के ब्लॉग्स में शेयर कर चुका हूँ, कोई इधर-उधर बची होगी तो फिर शेयर कर लूंगा।
आज की रचना हल्की-फुल्की है, गज़ल के छंद में है। इस छंद का बहुत सारे लोगों ने सदुपयोग-दुरुपयोग किया है, थोड़ा बहुत मैंने भी किया है। लीजिए प्रस्तुत है आज की रचना-
गज़ल
भाषा की डुगडुगी बजाते हैं,
लो तुमको गज़ल हम सुनाते हैं।
बहुत दिन रहे मौन के गहरे जंगल में,
अब अपनी साधना भुनाते हैं।
यूं तो कविता को हम, सुबह-शाम लिख सकते,
पर उससे अर्थ रूठ जाते हैं।
वाणी में अपनी, दुख-दर्द सभी का गूंजे,
ईश्वर से यही बस मनाते हैं।
मैंने कुछ कह दिया, तुम्हें भी कुछ कहना है,
अच्छा तो, लो अब हम जाते हैं।
इसके साथ ही पुरानी, अनछुई रचनाओं का यह सिलसिला अब यहीं थमता है, अब कल से देखेंगे कि क्या नया काम करना है।
नमस्कार।
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Nice post
Thanks dear.
Aapki pesh kiya hua ye halki pulki shayari bahuth simple aur badiya thi Sharma ji
Thanks Anamika Ji.
Badhiya….bahut khub.
धन्यवाद मधुसूदन जी।