अभी कल ही अपने एक पुराने कवि-मित्र का ज़िक्र किया था, मुद्दत हो गई उनसे मिले लेकिन आज भी याद आती है। हाँ कुछ लोग ऐसे भी होते हैं लोग जो लंबे समय बाद भी यादों में खटकते रहते हैं, हालांकि उनको भुला देना ही बेहतर होता है, मैं यह कहना चाहूंगा कि मेरे जीवन में ऐसे लोग कम ही रहे हैं, वरना शायद कुछ लोगों का जीवन सीरियल के एपिसोड्स जैसा संकटग्रस्त रहता हो, क्या मालूम! एकता कपूर कुछ देखकर ही अपना मसाला तैयार करती होगी ना!
खैर आज गुलज़ार साहब की एक खूबसूरत गज़ल, बिना किसी भूमिका क्र प्रस्तुत है, इसे गुलाम अली साहब ने अपनी दिलकश आवाज़ में गाया है-
खुशबू जैसे लोग मिले अफ़साने में
एक पुराना खत खोला अनजाने में।
जाने किसका ज़िक्र है इस अफ़साने में
दर्द मज़े लेता है जो दुहराने में।
शाम के साये बालिश्तों से नापे हैं
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में।
रात गुज़रते शायद थोड़ा वक्त लगे
ज़रा सी धूप दे उन्हें मेरे पैमाने में।
दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है
किसकी आहट सुनता है वीराने मे ।
आज के लिए इतना ही।
नमस्कार।
=============
4 replies on “147. खुशबू जैसे लोग”
lajwab.
Thanks Madhusudan Ji.
Lovely
Thanks dear.