इंसान परिस्थितियों के अनुसार क्या-क्या नहीं बनता और अपने आपको किस-किस रूप में महसूस नहीं करता।
कभी-कभी जीवन में ऐसा भी लगता है कि अब बहुत सहन कर लिया, एक झटका और लगा तो टूटकर बिखर जाएंगे।
अरेे कुछ नहीं ज़नाब, बस असरार अंसारी जी की एक गज़ल याद आ रही थी, जिसको गुलाम अली जी ने गाकर अमर कर दिया है।
लीजिए प्रस्तुत है ये गज़ल-
कच्ची दीवार हूँ ठोकर न लगाना मुझको,
अपनी नज़रों में बसाकर न गिराना मुझको।
तुम को आँखों में तसव्वुर की तरह रखता हूँ,
दिल में धड़कन की तरह तुम भी बसाना मुझको।
बात करने में जो मुश्किल हो तुम्हे महफिल में,
मैं समझ जाऊंगा नज़रों से बताना मुझको।
वादा उतना ही करो जितना निभा सकती हो,
ख्वाब पूरा जो न हो, वो न दिखाना मुझको।
अपने रिश्ते की नज़ाकत का भरम रख लेना,
में तो आशिक हूँ दिवाना न बनाना मुझको।
नमस्कार।
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6 replies on “148. कच्ची दीवार हूँ, ठोकर न लगाना मुझको”
बहुत खूब
धन्यवाद।
Nice
Thanks.
waah….bahut hi sundar kavita padhne ko mila ….bahut khub.
Dhanyavaad Madhusudan Ji.