आज फिर से प्रस्तुत है, एक और पुरानी ब्लॉग पोस्ट, संपादित रूप में-
बहुत सी बार ऐसा होता है कि कोई कविता शुरू करते हैं, कुछ लाइन लिखकर रुक जाते हैं। फिर आगे नहीं बढ़ पाते, लेकिन वो लाइनें भी दिमाग से नहीं मिट पातीं।
कविता की ये पंक्तियां, कभी दीपावली के आसपास लिखी थीं। बहुत साल पहले, कब, ये याद नहीं है। पंक्तियां इस तरह हैं-
हम भी अंबर तक, कंदील कुछ उड़ाते
पर अपने जीवन में रंग कब घुले।
हमको तो आकर हर भोर किरण
दिन का संधान दे गई,
अनभीगे रहे और बारिश
एक तापमान दे गई।
आकाशी सतहों पर लोट-लोट जाते,
पर अपने सपनों को पंख कब मिले॥
आज, अचानक ये अधूरा गीत याद आया, तो सोचा कि इसको भी यहाँ, अपनी डिजिटल स्मृतियों में स्थापित कर दूं।
अब अपना ये पुराना, अधूरा गीत साझा करने के बाद, जगजीत सिंह जी की गाई, कैफी साहब की लिखी एक लोकप्रिय गज़ल के एक दो शेर याद आ रहे हैं, वो भी शेयर कर लेता हूँ-
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो,
क्या गम है जिसको छिपा रहे हो।
आंखों में नमी, हंसी लबों पर,
क्या हाल है, क्या दिखा रहे हो।
बन जाएंगे ज़हर पीते-पीते
ये अश्क़ जो पीते जा रहे हो।
शायद ज़िंदगी में ऐसा तो चलता ही रहता है, कोई कैफी साहब जैसा शायर उसको इतनी खूबसूरती से बयां कर देता है।
कल, 22 जुलाई को मेरे प्रिय गायक मुकेश जी का जन्मदिन है, उनका गाया एक गीत शेयर करने का मन हो रहा है, फिल्म- परवरिश के लिए इस गीत को हसरत जयपुरी जी ने लिखा है और दत्ताराम जी के संगीत में मुकेश जी ने इसे गाकर अमर कर दिया है। प्रस्तुत है ये गीत-
आंसू भरी हैं, ये जीवन की राहें,
कोई उनसे कह दे, हमें भूल जाएं।
वादे भुला दें, क़सम तोड़ दें वो,
हालत पे अपनी, हमें छोड़ दें वो,
उन्हें घर मुबारक, हमें अपनी राहें,
कोई उनसे कह दे, हमें भूल जाएं।।
बरबादियों की अजब दास्तां हूँ,
शबनम भी रोए मैं वो आस्मां हूँ,
ऐसे जहाँ से क्यों हम दिल लगाएं,
कोई उनसे कह दे, हमें भूल जाएं।।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।