आज फिर से प्रस्तुत है, एक और पुरानी ब्लॉग पोस्ट-
अपने प्रिय गायक मुकेश जी के दो गीत एक साथ याद आ रहे हैं, एक है- ‘पुकारो मुझे नाम लेकर पुकारो, मुझे इससे अपनी खबर मिल रही है’ और दूसरा है- ‘मुझको इस रात की तनहाई में आवाज़ न दो!’
दो एकदम विपरीत स्थितियां हैं, लेकिन जीवन में लगभग सभी लोग इन एकदम विपरीत मनः स्थितियों से गुज़रते हैं।
छोटा बच्चा ही, जब थोड़ा बड़ा होने लगता है, तो उसको लगता है कि जिस प्रकार घर के दरवाज़े पर पिता का, माता का नाम लिखा है, उसका भी लिखा जाए, अक्सर वह जगह-जगह दीवारों पर भी अपना नाम लिख देता है।
प्रेम में तो लोग पेड़-पौधों पर, ऐतिहासिक इमारतों पर भी अपना नाम लिख देते हैं, जिससे वे इमारतें तो खराब होती हैं, कोई लाभ भी नहीं हो पाता, क्योंकि एक नाम के बहुत सारे लोग होते हैं। अगर वे वास्तव में इतिहास का हिस्सा बनना चाहते हैं तो उनको अपना पता भी लिखना चाहिए और फोटो भी लगा देनी चाहिए, लेकिन इस कारण यह भी हो सकता है कि उनका अस्थाई पता ‘जेल’ हो जाए।
खैर अब अपनी पहचान की चाह वाले इस गीत की कुछ पंक्तियां शेयर कर लेता हूँ-
पुकारो मुझे नाम लेकर पुकारो
मुझे तुमसे अपनी खबर मिल रही है।
कई बार यूं भी हुआ है सफर में,
अचानक से दो अजनबी मिल गए हों।
जिन्हें रूप पहचानती हो नज़र से,
भटकते-भटकते वही मिल गए हों।
कुंवारे लबों की कसम तोड़ दो तुम
ज़रा मुस्कुराकर बहारें संवारो।
खयालों में तुमने भी देखी तो होंगी,
कभी मेरे ख्वाबों की धुंधली लकीरें।
तुम्हारी हथेली से मिलती हैं जाकर,
मेरे हाथ की ये अधूरी लकीरें।
बड़ी सर चढ़ी हैं ये ज़ुल्फें तुम्हारी,
ये ज़ुल्फें मेरे बाज़ुओं में उतारो।
ये गीत है उन स्थितियों का, जहाँ इंसान अपनी पहचान और अपने अरमान पाना चाहता है, अपनी पहचान को प्रसारित करना चाहता है।
लेकिन यह जीवन है मेरे मित्र, इसमें ऐसी स्थितियां भी आती हैं, जब निराशा के गर्त में डूबा इंसान, सबसे निगाह बचाकर निकल जाना चाहता है। खुशी पाने के सारे प्रयास करने, हर तरह से असफल होने के बाद, इंसान कुछ समय के लिए गुमनामी में डूब जाना चाहता है।
निराशा में डूबे इंसान की भावनाओं, घोर निराशा की अभिव्यक्ति है यह गीत, जब व्यक्ति यह चाहने लगता है कि उसे अकेला छोड़ दिया जाए, कोई उसका नाम भी न ले, अपने आपमें बहुत सुंदर गीत है, गीत सुख का हो या दुख का, अगर सुंदर है तो है-
मुझको इस रात की तनहाई में आवाज़ न दो,
जिसकी आवाज़ रुला दे, मुझे वो साज़ न दो।
रौशनी हो न सकी, दिल भी जलाया मैंने,
तुमको भूला ही नहीं लाख भुलाया मैंने,
मैं परेशां हूँ मुझे और परेशां न करो,
आवाज़ न दो।
किस क़दर जल्द किया मुझसे किनारा तुमने,
कोई भटकेगा अकेला ये न सोचा तुमने,
छुप गए हो तो मुझे याद भी आया न करो,
आवाज़ न दो।
और शायद इस गीत की मनः स्थिति से आगे बढ़कर ही कोई कहता है-
तुम्हे ज़िंदगी के उजाले मुबारक
अंधेरे हमें आज रास आ गए हैं।
खैर यही कामना है कि इन सभी मनः स्थितियों से परिचित होत हुए भी, सभी सुखी रहें।
नमस्कार।