कल ही मैंने ‘पेरेंटिंग’ पर लिखी अपनी ब्लॉग पोस्ट के बाद बचपन की खूबसूरती, मदमस्ती और अलग ही दुनिया को याद करते हुए, श्री सुदर्शन फाकिर जी का लिखा गीत शेयर किया था। आज बचपन की ही खूबसूरती को दर्शाने वाली एक गज़ल शेयर कर रहा हूँ, जनाब जावेद अख्तर साहब की लिखी हुई। बहुत खूबसूरत गज़ल है, और हाँ यह गज़ल भी हम जैसे सामान्य श्रोता-पाठकों तक, जगजीत सिंह साहब के जादुई स्वर में पहुंची थी।
बचपन का समय भी क्या समय होता है। यही दुनिया होती है, जिसमें हम बड़े लोग रहते हैं, लेकिन अपने सपनीले एहसासों के साथ, जब तक हम बच्चे होते हैं, इस दुनिया को हम अलग तरह से देखते हैं और हमारे बड़े होते ही यह दुनिया पूरी तरह बदल जाती है। लीजिए प्रस्तुत है ये खूबसूरत गज़ल-
मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं|
इक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे रिश्ता तोड़ लिया
इक वो दिन जब पेड़ की शाख़े बोझ हमारा सहती थीं|
इक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का
इक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं|
इक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी रूठी लगती हैं
इक वो दिन जब ‘आओ खेलें’ सारी गलियाँ कहती थीं|
इक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं
इक वो दिन जब शामों की भी पलकें बोझल रहती थीं।
इक ये दिन जब ज़हन में सारी अय्यारी की बातें हैं
इक वो दिन जब दिल में सारी भोली बातें रहती थीं।
इक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामाँ रहता है
इक वो घर जिसमें मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं।
– जावेद अख्तर
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
Jagjit Singh is my all time fav gazal singer, have listened this song,this one is really nice.
Beautiful lines