आज गुलाम अली जी की गायी एक ऐसी गज़ल शेयर कर रहा हूँ, जिसको सुनकर विशेष रूप से मेरी गुलाम अली जी की गायकी में विशेष रुचि पैदा हुई थे, यह वर्ष 1980 के आसपास की बात है शायद। इससे पहले भी अनेक गज़ल गायकों को सुना था, जिनमें पाकिस्तान में मेहंदी हसन जी बहुत विख्यात थे, हिंदुस्तान में बेगम अख्तर जी इससे काफी पहले प्रसिद्ध हो चुकी थीं। लेकिन शायद गुलाम अली जी की गायकी ने लंबे समय तक बहुत अच्छा माहौल गज़ल के क्षेत्र में बनाए रखा है। उनकी एक विशेषता यह भी है कि वे यह पसंद नहीं करते कि आर्केस्ट्रा के शोर में गायकी दबकर रह जाए।
लीजिए प्रस्तुत है मोहसिन अली नक़्वी जी की लिखी यह गज़ल जिसे गुलाम अली साहब ने बहुत खूबसूरत तरीके से प्रस्तुत किया है। वास्तव में आवारगी कितना भटकाती है इंसान को!
ये दिल ये पागल दिल मेरा,
क्यों बुझ गया आवारगी।
इस दश्त में इक शहर था,
वो क्या हुआ, आवारगी।
कल शब मुझे बेशक्ल की
आवाज़ ने चौंका दिया
मैंने कहा तू कौन है
उसने कहा आवारगी।
ये दिल ये पागल…
ये दर्द की तन्हाइयाँ
ये दश्त का वीरां सफर
हम लोग तो उकता गए
अपनी सुना आवारगी।
ये दिल ये पागल…
इक अजनबी झोंके ने जब
पूछा मेरे गम का सबब
सहरा की भीगी रेत पर
मैंने लिखा आवारगी।
ये दिल ये पागल…
कल रात तनहा चाँद को
देखा था मैंने ख्वाब में
मोहसिन मुझे रास आएगी
शायद सदा आवारगी।
ये दिल ये पागल दिल मेरा
क्यों बुझ गया आवारगी।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
Beautiful gazhal. Who doesn’t like soulful voice of Ghulam Ali!
Very true Sir.