आज ऐसे ही मन हुआ कि अभिव्यक्ति के इस मार्ग से जुड़ी एक गज़ल के बारे में बात कर लें, जिस पर मैं मानता हूँ कि मैं और मुझ जैसे बहुत सारे लोग चलते हैं।
एक गज़ल याद आ रही है ज़नाब मुमताज़ राशिद जी की। वैसे तो यह किसी भी नये मार्ग पर चलने वाले, अपना रास्ता खुद बनाने वाले पर लागू होती है, जिनका कोई गॉडफादर नहीं होता। लेकिन स्वयं को किसी भी कला-माध्यम से अभिव्यक्त करने वालों पर भी यह पूरी तरह लागू होती है। जहाँ तक मुझे जानकारी है इस गज़ल को पंकज उधास जी, हरिहरन जी आदि कई गज़ल गायकों ने गाया है।
लीजिए प्रस्तुत है यह प्यारी सी, खुद्दारी और हौसले से भरी गज़ल-
पत्थर सुलग रहे थे, कोई नक्श-ए-पा न था,
हम जिस तरफ चले थे, उधर रास्ता न था।
परछाइयों के शहर की, तन्हाइयां न पूछ,
अपना शरीक़-ए-गम, कोई अपने सिवा न था।
यूं देखती है गुमशुदा लम्हों के मोड़ से,
इस ज़िंदगी से जैसे कोई वास्ता न था।
चेहरों पे जम गई थीं, खयालों की उलझनें,
लफ्जों की जुस्तजू में कोई बोलता न था।
पत्तों के टूटने की सदा घुट के रह गई,
जंगल में दूर-दूर हवा का पता न था।
राशिद किसे सुनाते गली में तेरी गज़ल,
उसके मकां का कोई दरीचा खुला न था।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
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4 replies on “जंगल में दूर-दूर हवा का पता न था!”
Nice one
Thanks Sir.
waah lajjawaab
Thanks Dwivedi Ji.