आज फिर से एक गज़ल शेयर करने का मन है। ये गज़ल है ज़नाब डॉ. बशीर बद्र जी की, जो वर्तमान उर्दू शायरों में एक अलग अंदाज़ के लिए जाने जाते हैं, गज़ल में बहुत से एक्सपेरीमेंट किए हैं डॉ. बशीर बद्र जी ने। यह गज़ल भी एक अलग तरह की है और कुछ शेर बहुत दमदार हैं।
आइए आज इस गज़ल का आनंद लेते हैं-
आँखों में रहा, दिल में उतर कर नहीं देखा,
कश्ती के मुसाफ़िर ने समुंदर नहीं देखा ।
बे-वक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे,
इक उम्र हुई, दिन में कभी घर नहीं देखा ।
जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है,
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा ।
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं,
तुम ने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा।
यारों की मोहब्बत का यक़ीं कर लिया मैंने,
फूलों में छुपाया हुआ ख़ंजर नहीं देखा।
महबूब का घर हो कि बुज़ुर्गों की ज़मीनें,
जो छोड़ दिया फिर उसे मुड़कर नहीं देखा।
ख़त ऐसा लिखा है कि नगीने से जड़े हैं,
वो हाथ कि जिसने कोई ज़ेवर नहीं देखा।
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला,
मैं मोम हूँ उसने मुझे छू कर नहीं देखा।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
3 replies on “कश्ती के मुसाफिर ने समुंदर नहीं देखा!”
Wah!
Thanks Neeraj Ji.
Thanks Neeraj Ji.