आज कैफ़ी आज़मी साहब की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| कैफ़ी साहब एक क्रांतिकारी शायर थे, वे मुशायरों की शान हुआ करते थे और फिल्मों के लिए भी उन्होंने अनेक यादगार गीत लिखे हैं|

लीजिए प्रस्तुत है कैफ़ी साहब की यह रचना –
रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे
फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ
बार-हा तोड़ चुका हूँ जिन को
उन्हीं दीवारों से टकराता हूँ|
रोज़ बसते हैं कई शहर नए
रोज़ धरती में समा जाते हैं,
ज़लज़लों में थी ज़रा सी गर्मी
वो भी अब रोज़ ही आ जाते हैं|
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप न साया न सराब,
कितने अरमान हैं किस सहरा में
कौन रखता है मज़ारों का हिसाब|
नब्ज़ बुझती भी भड़कती भी है
दिल का मामूल है घबराना भी,
रात अंधेरे ने अंधेरे से कहा
एक आदत है जिए जाना भी|
क़ौस इक रंग की होती है तुलू
एक ही चाल भी पैमाने की,
गोशे-गोशे में खड़ी है मस्जिद
शक्ल क्या हो गई मय-ख़ाने की|
कोई कहता था समुन्दर हूँ मैं
और मेरी जेब में क़तरा भी नहीं,
ख़ैरियत अपनी लिखा करता हूँ
अब तो तक़दीर में ख़तरा भी नहीं|
अपने हाथों को पढ़ा करता हूँ
कभी क़ुरआँ कभी गीता की तरह,
चन्द रेखाओं में सीमाओं में
ज़िन्दगी क़ैद है सीता की तरह|
राम कब लौटेंगे मालूम नहीं,
काश रावण ही कोई आ जाता|
आज के लिए इतना ही
नमस्कार|
******
2 replies on “जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत!”
वाह कमाल!
Thanks a lot ji.