कल मैंने खड़ी बोली हिन्दी के एक प्रारंभिक प्रमुख कवि स्वर्गीय अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी की एक रचना प्रस्तुत की थी। आज फिर से स्वर्गीय ‘हरिऔध’ जी की एक और रचना शेयर कर रहा हूँ, जिसे मैंने अपने स्कूल के पाठ्यक्रम में भी पढ़ा था|

कविता के क्या दायित्व हैं और कवियों से हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं, यह भी समय के साथ बदलता जाता है| प्रारंभ में कविगण प्रेरणा देना भी अपना दायित्व समझते थे| कुछ ऐसा ही इस कविता में ‘बूंद’ के उदाहरण से उन लोगों से कहा गया है, जो कार्य-व्यवसाय आदि के लिए घर से दूर जाने में डरते हैं|
लीजिए प्रस्तुत है हरिऔध जी की यह रचना-
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूंद कुछ आगे बढ़ी,
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
हाय क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी।
दैव मेरे भाग्य में है क्या लिखा, मैं बचूंगी या मिलूंगी धूल में,
चू पडूंगी या कमल के फूल में।
बह गई उस काल एक ऐसी हवा
वो समंदर ओर आई अनमनी,
एक सुंदर सीप का मुँह था खुला
वो उसी में जा गिरी, मोती बनी।
लोग यों ही हैं झिझकते सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
किंतु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूंद लौं कुछ और ही देता है कर।
आज के लिए इतना ही
नमस्कार|
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Thanks for sharing such a gem of a poetry.
Thanks a lot ji.
Thanks once again!!
Welcome ji.