ज़नाब क़तील शिफाई जी भारतीय उप महाद्वीप के एक मशहूर शायर रहे हैं, कवि-कलाकार देशों की सीमाओं में नहीं बंधे होते| क़तील साहब की अनेक गज़लें जगजीत सिंह जी और अन्य गायकों ने गाई हैं|
आज उनकी एक अलग किस्म की रचना शेयर कर रहा हूँ| एक ऐसा गीत जो वास्तव में मन के मुक्त होने की छवियाँ प्रस्तुत करता है, घुँघरू के बहाने से| लीजिए प्रस्तुत है क़तील शिफ़ाई जी की यह रचना, जिसे पंकज उधास जी ने और अन्य गायकों ने भी गाया है-

मुझे आई ना जग से लाज
मैं इतना ज़ोर से नाची आज,
कि घुंघरू टूट गए|
कुछ मुझ पे नया जोबन भी था
कुछ प्यार का पागलपन भी था
कभी पलक पलक मेरी तीर बनी
एक जुल्फ मेरी ज़ंजीर बनी
लिया दिल साजन का जीत
वो छेड़े पायलिया ने गीत,
कि घुंघरू टूट गए|
मैं बसती थी जिसके सपनों में
वो गिनेगा अब मुझे अपनों में
कहती है मेरी हर अंगड़ाई
मैं पिया की नींद चुरा लायी,
मैं बन के गई थी चोर
मगर मेरी पायल थी कमज़ोर,
कि घुंघरू टूट गए|
धरती पे ना मेरे पैर लगे
बिन पिया मुझे सब गैर लगे,
मुझे अंग मिले अरमानों के
मुझे पंख मिले परवानों के,
जब मिला पिया का गाँव
तो ऐसा लचका मेरा पांव,
कि घुंघरू टूट गए|
आज के लिए इतना ही
नमस्कार|
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6 replies on “घुँघरू टूट गए!”
Share करने के लिए शुक्रिया
Welcome ji.
Lajawab!
Thanks a lot ji.
Bahut achha
Thanks a lot ji.