दुष्यंत कुमार जी की आपातकाल में लिखी गई कुछ ग़ज़ल और कविताएं मैं पहले भी शेयर कर चुका हूँ| आज दुष्यंत जी की एक और ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ, जो उनके संकलन ‘साये में धूप’ में शामिल थी|

लीजिए प्रस्तुत है यह ग़ज़ल-
नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं,
जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं|
वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है,
मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं|
यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन,
ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं|
चले हवा तो किवाड़ों को बंद कर लेना,
ये गर्म राख़ शरारों में ढल न जाए कहीं|
तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है,
तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं|
कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू उभरी,
कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाए कहीं|
ये लोग होमो-हवन में यकीन रखते है,
चलो यहां से चलें, हाथ जल न जाए कहीं|
आज के लिए इतना ही
नमस्कार|
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