आधुनिक उर्दू शायरी के प्रमुख हस्ताक्षर डॉ बशीर बद्र जी की एक ग़ज़ल आज शेयर कर रहा हूँ| डॉ बद्र शायरी में नया मुहावरा गढ़ने और प्रयोग करने के लिए जाने जाते हैं|
इस ग़ज़ल की विशेष बात ये है कि इसका अंतिम शेर जैसे एक मुहावरा बन गया, लोग अक्सर इसका प्रयोग करते हैं, ये जाने बिना कि यह किस ग़ज़ल से है|
लीजिए प्रस्तुत है ये खूबसूरत ग़ज़ल-

हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए,
चराग़ों की तरह आँखें जलें, जब शाम हो जाए|
मैं ख़ुद भी एहतियातन, उस गली से कम गुजरता हूँ,
कोई मासूम क्यों मेरे लिए, बदनाम हो जाए|
अजब हालात थे, यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर
मुहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाए|
समन्दर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमको,
हवायें तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाए
मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहाँ होगा,
परिंदा आस्माँ छूने में जब नाकाम हो जाए|
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में, ज़िंदगी की शाम हो जाए|
आज के लिए इतना ही
नमस्कार|
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