स्वर्गीय दुष्यंत कुमार जी की कुछ रचनाएं मैं पहले शेयर कर चुका हूँ| दुष्यंत कुमार जी हिन्दी के प्रमुख कवियों में शामिल थे, परंतु उनको विशेष रूप से प्रसिद्धि मिली थी आपातकाल में प्रकाशित उनकी विद्रोह के स्वर गुंजाने वाली ग़ज़लों से, जिन्हें बाद में उनके ग़ज़ल संकलन ‘साये में धूप’ में संकलित किया गया|
आज जो ग़ज़ल मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ वह दुष्यंत कुमार जी की एक प्रसिद्ध ग़ज़ल है परंतु शायद मैं अब तक इसको यहाँ शेयर नहीं कर पाया हूँ, तो लीजिए यह आज प्रस्तुत है-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए|
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए|
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए|
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए|
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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वाह, बहुत खुबसूरत |
Thanks a lot ji.