निदा फ़ाज़ली साहब मेरे अत्यंत प्रिय शायर रहे हैं, बहुत सुंदर गीत, ग़ज़लें और नज़्में उन्होंने लिखी हैं, दोहे ऐसे-ऐसे कि ‘मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार’, और इसे ग़ज़ल कहें या भजन- ‘गरज, बरस प्यासी धरती पर, फिर पानी दे मौला’, ‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए’ बहुत सारी पंक्तियाँ याद आती हैं, बस एक उदाहरण और दूंगा- ‘बरसात का बादल तो, दीवाना है क्या जाने, किस राह पे मुड़ना है, किस छत को भिगोना है’ आदि-आदि|
आज मैं निदा फ़ाज़ली साहब की जो नज़्म शेयर कर रहा हूँ, वह भी एक जीवंत सच्चाई है, लोगों के बीच में दूरी पैदा करने वाली दीवारें, खास तौर पर हिन्दू-मुसलमानों के बीच में| लीजिए प्रस्तुत है ये नज़्म-

हमको कब जुड़ने दिया
जब भी जुड़े बांटा गया
रास्ते से मिलने वाला
हर रास्ता काटा गया|
कौन बतलाए
सभी अल्लाह के धन्धों में हैं
किस तरफ़ दालें हुईं रुख़सत
किधर आटा गया,
लड़ रहे हैं उसके घर की
चहारदीवारी पर सब
बोलिए, रैदास जी !
जूता कहाँ गांठा गया,
मछलियां नादान हैं
मुमकिन है खा जाएं फ़रेब
फिर मछेरे का
भरे तालाब में कांटा गया
वह लुटेरा था मगर
उसका मुसलमां नाम था
बस, इसी एक जुर्म पर
सदियों उसे डांटा गया|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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Awesome post!! The words are so true!! I wish people could understand this fact a wider level so that those people won’t be able to continue with such works which divide humans!!
Thanks a lot ji
Glad to be connected, Sir!!
Welcome ji.