आज सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| सर्वेश्वर जी अपने समय के प्रमुख साहित्यिक कवियों में शामिल थे और उस समय की प्रमुख साप्ताहिक समाचार पत्रिका ‘दिनमान’ के संपादन मण्डल में शामिल थे|
बाकी तो कविता खुद अपनी बात कहती है, लीजिए प्रस्तुत है सर्वेश्वर जी की यह कविता

अजनबी देश है यह, जी यहाँ घबराता है
कोई आता है यहाँ पर न कोई जाता है|
जागिए तो यहाँ मिलती नहीं आहट कोई,
नींद में जैसे कोई लौट-लौट जाता है|
होश अपने का भी रहता नहीं मुझे जिस वक्त,
द्वार मेरा कोई उस वक्त खटखटाता है|
शोर उठता है कहीं दूर क़ाफिलों का-सा,
कोई सहमी हुई आवाज़ में बुलाता है|
देखिए तो वही बहकी हुई हवाएँ हैं,
फिर वही रात है, फिर-फिर वही सन्नाटा है|
हम कहीं और चले जाते हैं अपनी धुन में
रास्ता है कि कहीं और चला जाता है|
दिल को नासेह की ज़रूरत है न चारागर की
आप ही रोता है औ आप ही समझाता है।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार
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जी , बहुत सुन्दर रचना |
बहुत बहुत धन्यवाद जी।