लीजिए आज एक बार फिर से स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की एक कविता प्रस्तुत है| जैसा कि मैंने पहले भी उनके बारे में लिखा है वे साप्ताहिक समाचार पत्रिका- ‘दिनमान’ के संपादक मण्डल में थे और हिन्दी के श्रेष्ठ कवि थे| कुछ कविताओं में उनकी अभिव्यक्ति वास्तव में अद्वितीय रही है| आज की कविता में उन्होंने सोती हुई बेटी को जगाने के बहाने कुछ अच्छी बातें की हैं| जैसे सुलाने के लिए लोरी सुनाते हैं वैसे जगाने के लिए भी कविता में कुछ बढ़िया बातें की गई हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की यह कविता –

पेड़ों के झुनझुने,
बजने लगे;
लुढ़कती आ रही है
सूरज की लाल गेंद।
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने जो छोड़े थे,
गैस के गुब्बारे,
तारे अब दिखाई नहीं देते,
(जाने कितने ऊपर चले गए)
चांद देख, अब गिरा, अब गिरा,
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने थपकियां देकर,
जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था,
टीले, मुंहरंगे आंख मलते हुए बैठे हैं,
गुड्डे की ज़रवारी टोपी
उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया
वह देखो उड़ी जा रही है चूनर
तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तेरे साथ थककर
सोई थी जो तेरी सहेली हवा,
जाने किस झरने में नहा के आ गई है,
गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब,
देख तो, कितना रंग फैल गया
उठ, घंटियों की आवाज धीमी होती जा रही है
दूसरी गली में मुड़ने लग गया है बूढ़ा आसमान,
अभी भी दिखाई दे रहे हैं उसकी लाठी में बंधे
रंग बिरंगे गुब्बारे, कागज़ पन्नी की हवा चर्खियां,
लाल हरी ऐनकें, दफ्ती के रंगीन भोंपू,
उठ मेरी बेटी, आवाज दे, सुबह हो गई।
उठ देख,
बंदर तेरे बिस्कुट का डिब्बा लिए,
छत की मुंडेर पर बैठा है,
धूप आ गई।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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इनकी रचनाएँ मुझे बहुत पसंद है |
जी बहुत अच्छा लिखते थे, धन्यवाद।
बेहद सुंदर, एक बेटी सिर्फ अपने माता पिता के घर पर ही इस तरह सो सकती है और उसे इतने प्यार से सिर्फ माता पिता ही उठा सकते है।
बहुत सही कहा आपने, धन्यवाद जी।