आज फिर से मैं एक श्रेष्ठ गीतकार, सरल व्यक्तित्व के धनी और मेरे लिए बड़े भाई जैसे स्वर्गीय किशन सरोज जी का एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ| किशन जी प्रेम के अनूठे कवि थे, यह रचना कुछ अलग तरह की है लेकिन उतनी ही प्रभावशाली है|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय किशन सरोज जी का यह गीत, जो यह अभिव्यक्त करता है कि प्रेम के वशीभूत होकर इंसान क्या-क्या नहीं करता है –

दो बूंदें दृग से ढलका तुमने,
बादल-बादल भटकाया हमको|
खजुराहो, कोणार्क, एलिफेंटा,
ताज, अजंता, ऐलोरा-दर्शन
हरिद्वार, तिरुपति, प्रयाग,
काशी वैष्णो देवी, मथुरा-वृन्दावन
एक नदी-भर प्यास जगा
तुमने मृगजल-मृगजल भटकाया हमको|
आग लगी मन-प्राणों में ऐसी
सिवा राख के कुछ भी नहीं बचा
लिखना था क्या-क्या लेकिन हमने
सिवा गीत के कुछ भी नहीं रचा,
गीतों की सौगात सौँप तुमने
पागल-पागल भटकाया हमको|
हर प्रात: पुरवा संग हम घूमे
दिन-दिन भर सूरज के साथ चले,
हर संध्या जुगनू-जुगनू दमके
रात-रात भर बनकर दिया जले|
झलक दिखा घूंघट-पट की तुमने
आंचल-आंचल भटकाया हमको|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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