आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम!

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम,
उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम|

फ़िराक़ गोरखपुरी

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