
बेताबी-ओ-सुकूँ की हुईं मंज़िलें तमाम,
बहलाएँ तुझ से छुट के तबीअ’त कहाँ कहाँ|
फ़िराक़ गोरखपुरी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
बेताबी-ओ-सुकूँ की हुईं मंज़िलें तमाम,
बहलाएँ तुझ से छुट के तबीअ’त कहाँ कहाँ|
फ़िराक़ गोरखपुरी