
रुलाया अहल-ए-महफ़िल को निगाह-ए-यास ने मेरी,
क़यामत थी जो इक क़तरा इन आँखों से जुदा होता|
चकबस्त बृज नारायण
आसमान धुनिए के छप्पर सा
रुलाया अहल-ए-महफ़िल को निगाह-ए-यास ने मेरी,
क़यामत थी जो इक क़तरा इन आँखों से जुदा होता|
चकबस्त बृज नारायण