आज फिर हिन्दी कविता के विराट पुरुष- महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ| निराला जी ने इस कविता में भी माता सरस्वती के समक्ष अपना विनम्र निवेदन किया है| निराला जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की यह कविता–

क्या गाऊँ? माँ! क्या गाऊँ?
गूँज रहीं हैं जहाँ राग-रागिनियाँ,
गाती हैं किन्नरियाँ कितनी परियाँ
कितनी पंचदशी कामिनियाँ,
वहाँ एक यह लेकर वीणा दीन
तन्त्री-क्षीण, नहीं जिसमें कोई झंकार नवीन,
रुद्ध कण्ठ का राग अधूरा कैसे तुझे सुनाऊँ?–
माँ! क्या गाऊँ?
छाया है मन्दिर में तेरे यह कितना अनुराग!
चढते हैं चरणों पर कितने फूल
मृदु-दल, सरस-पराग;
गन्ध-मोद-मद पीकर मन्द समीर
शिथिल चरण जब कभी बढाती आती,
सजे हुए बजते उसके अधीर नूपुर-मंजीर!
वहाँ एक निर्गन्ध कुसुम उपहार,
नहीं कहीं जिसमें पराग-संचार सुरभि-संसार
कैसे भला चढ़ाऊँ?–
माँ? क्या गाऊँ?
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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