आज एक बार फिर मैं हिन्दी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार स्वर्गीय रवीन्द्रनाथ त्यागी जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| इस कविता में भी त्यागी जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि का स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय रवीन्द्रनाथ त्यागी जी की यह कविता–

मुस्कानों के नेपकिन बिछा
वे एक-दूसरे को ही खाने लगे
चुपचाप
पलाश, भाद्रपदी हवाएँ और वर्षा
उन्होंने कुछ नहीं देखा;
उन्होंने सिर्फ़ उन्हें आँका
जिनके खा जाने के बाद
उनका भय और बढ़ना था
समुद्र की मेज़ पर
शाम के बावर्ची ने
सूरज का मुर्गा कर दिया हलाल
और वे सब अफ़सर, दलाल और वकील
उन लोगों से गले मिलने लगे
जिन्हें निगलना अभी बाक़ी था
पलाश, भाद्रपदी हवाएँ और वर्षा
उन्होंने कुछ नहीं देखा।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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