
ये गुल खिले हैं कि चोटें जिगर की उभरी हैं,
निहाँ बहार थी बुलबुल तिरे तराने में|
फ़िराक़ गोरखपुरी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
ये गुल खिले हैं कि चोटें जिगर की उभरी हैं,
निहाँ बहार थी बुलबुल तिरे तराने में|
फ़िराक़ गोरखपुरी