आज हिन्दी साहित्य के एक विराट व्यक्तित्व स्वर्गीय सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| इस कविता में एक तरह से एक मटका अपनी मालकिन- पनिहारिन से अपने मनोभाव व्यक्त कर रहा है| अज्ञेय जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है अज्ञेय जी की यह कविता –

कंकड़ से तू छील-छील कर आहत कर दे
बाँध गले में डोर, कूप के जल में धर दे।
गीला कपड़ा रख मेरा मुख आवृत कर दे-
घर के किसी अँधेरे कोने में तू धर दे।
जैसे चाहे आज मुझे पीडि़त कर ले तू,
जो जी आवे अत्याचार सभी कर ले तू।
कर लूँगा प्रतिशोध कभी पनिहारिन तुझ से;
नहीं शीघ्र तू द्वन्द्व-युद्ध जीतेगी मुझ से!
निज ललाट पर रख मुझ को जब जाएगी तू-
देख किसी को प्रान्तर में रुक जाएगी तू,
भाव उदित होंगे जाने क्या तेरे मन में-
सौदामिनि-सी दौड़ जाएगी तेरे तन में;
मन्द-हसित, सव्रीड झुका लेगी तू माथा,
तब मैं कह डालूँगा तेरे उर की गाथा!
छलका जल गीला कर दूँगा तेरा आँचल,
अत्याचारों का तुझ को दे दूँगा प्रतिफल!
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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