
कहीं से लौट के हम लड़खड़ाए हैं क्या क्या,
सितारे ज़ेर-ए-क़दम रात आए हैं क्या क्या|
कैफ़ी आज़मी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
कहीं से लौट के हम लड़खड़ाए हैं क्या क्या,
सितारे ज़ेर-ए-क़दम रात आए हैं क्या क्या|
कैफ़ी आज़मी
आज फिर से मैं प्रसिद्ध आधुनिक हिन्दी कवि और प्रसिद्ध उच्च अधिकारी रहे श्री अशोक वाजपेयी जी की एक लंबी कविता शेयर कर रहा हूँ| अशोक जी का किसी समय भारत सरकार की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक नीति को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा था| वाजपेयी जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है श्री अशोक वाजपेयी जी की यह कविता –
हम उस मंदिर में जायेंगे
जो किसी ने नहीं बनाया
शताब्दियों पहले
हम प्रणाम करेंगे उस देवता को
जो थोड़ी देर पहले
हमारे साथ चाय की दूकान पर
अखबार पलट रहा था
हम जंगल के सुनसान को भंग किये बिना
झरने के पास बैठकर
सुनेगे पक्षियों-पल्लवों-पुष्पों की प्रार्थनाएँ
फिर हम धीरे-धीरे
आकाशमार्ग से वापस लौट जायेंगे
कि किसी को याद ही न रहे
कि हम थे, जंगल था
मंदिर और देवता थे
प्रणति थी-
कोई नहीं देख पायेगा
हमारा न होना
जैसे प्रार्थना में डूबी भीड़ से
लोप हो गये बच्चों को
कोई नहीं देख पाता-
सब कुछ छोड़कर नहीं
हम सब कुछ छोड़कर
यहाँ से नहीं जायेंगे
साथ ले जायेंगे
जीने की झंझट, घमासान और कचरा
सुकुमार स्मृतियाँ, दुष्टताएँ
और कभी कम न पड़नेवाले शब्दों का बोझ।
हरियाली और उजास की छबियाँ
अप्रत्याशित अनुग्रहों का आभार
और जो कुछ भी हुए पाप-पुण्य।
समय-असमय याद आनेवाली कविताएँ
बचपन के फूल-पत्तियों भरे हरे सपने
अधेड़ लालसाएँ
भीड़ में पीछे छूट गये, बच्चे का दारुण विलाप।
दूसरों की जिन्दगी में
दाखिल हुए अपने प्रेम और चाहत के हिस्सों
और अपने होने के अचरज को
साथ लिये हम जायेंगे।
हम सब कुछ छोड़कर
यहाँ से नहीं जायेंगे।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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सिर्फ़ ख़ुश्बू की कमी थी ग़ौर के क़ाबिल ‘क़तील’,
वर्ना गुलशन में कोई भी फूल मुरझाया न था|
क़तील शिफ़ाई
अब खुला झोंकों के पीछे चल रही थीं आँधियाँ,
अब जो मंज़र है वो पहले तो नज़र आया न था|
क़तील शिफ़ाई
वो पयम्बर हो कि आशिक़ क़त्ल-गाह-ए-शौक़ में,
ताज काँटों का किसे दुनिया ने पहनाया न था|
क़तील शिफ़ाई
हो गए क़ल्लाश जब से आस की दौलत लुटी,
पास अपने और तो कोई भी सरमाया न था|
क़तील शिफ़ाई
ख़ूब रोए छुप के घर की चार-दीवारी में हम,
हाल-ए-दिल कहने के क़ाबिल कोई हम-साया न था|
क़तील शिफ़ाई
उफ़ ये सन्नाटा कि आहट तक न हो जिसमें मुख़िल,
ज़िंदगी में इस क़दर हमने सुकूँ पाया न था|
क़तील शिफ़ाई
क्या मिला आख़िर तुझे सायों के पीछे भागकर,
ऐ दिल-ए-नादाँ तुझे क्या हमने समझाया न था|
क़तील शिफ़ाई
सुर्ख़ आहन पर टपकती बूँद है अब हर ख़ुशी,
ज़िंदगी ने यूँ तो पहले हमको तरसाया न था|
क़तील शिफ़ाई