आज सोचता हूँ कि गुलाम अली जी की गाई एक और ग़ज़ल शेयर करूं| इस ग़ज़ल के लेखक हैं ज़नाब परवेज़ जालंधरी साहब|
इस ग़ज़ल में मानो एक चुनौती है, या कहें कि जो अपने आपको कुर्बान करने को तैयार हो, वही ‘तुमसे’ इश्क़ कर पाएगा, कहा गया है न, ‘शीश उतारे भुईं धरे, सो पैठे घर माहीं’| चुनौती तो बड़ी ज़बरदस्त है ना!
लीजिए प्रस्तुत है यह खूबसूरत ग़ज़ल-
जिनके होंठों पे हँसी पाँव में छाले होंगे हाँ वही लोग तेरे चाहने वाले होंगे|
मय बरसती है फ़ज़ाओं पे नशा तारीं है, मेरे साक़ी ने कहीं जाम उछाले होंगे|
उनसे मफ़हूम-ए-ग़म-ए-ज़ीस्त अदा हो शायद, अश्क़ जो दामन-ए-मिजग़ाँ ने सम्भाले होंगे|
शम्मा ले आये हैं हम जल्वागह-ए-जानाँ से, अब दो आलम में उजाले ही उजाले होंगे|
हम बड़े नाज़ से आये थे तेरी महफ़िल में, क्या ख़बर थी लब-ए-इज़हार पे ताले होंगे|
कविताओं और शायरी के मामले में, मूल परंपरा तो यही रही है कि हम रचनाओं को उनके रचयिता याने कवि अथवा शायर के नाम से जानते रहे हैं| लेकिन यह भी सच्चाई है कि बहुत सी अच्छी रचनाएँ सामान्य जनता तक तभी पहुँच पाती हैं जब उन्हें कोई अच्छा गायक, अच्छे संगीत के साथ गाता है| इसके लिए हमें उन विख्यात गायकों का आभारी होना चाहिए जिनके कारण बहुत सी बार गुमनाम शायर भी प्रकाश में आ पाते हैं|
आज मैं गुलाम अली साहब की गाई एक प्रसिद्ध गजल शेयर कर रहा हूँ, जिसे जनाब मसरूर अनवर साहब ने लिखा है|
लीजिए प्रस्तुत है यह ग़ज़ल, मुझे विश्वास है कि आपने इसे अवश्य सुना होगा-
हमको किसके ग़म ने मारा, ये कहानी फिर सही किसने तोड़ा दिल हमारा, ये कहानी फिर सही हमको किसके ग़म ने…
दिल के लुटने का सबब पूछो न सबके सामने नाम आएगा तुम्हारा, ये कहानी फिर सही हमको किसके ग़म ने…
नफरतों के तीर खाकर, दोस्तों के शहर में हमने किस किस को पुकारा, ये कहानी फिर सही हमको किसके ग़म ने…
क्या बताएँ प्यार की बाजी, वफ़ा की राह में कौन जीता कौन हारा, ये कहानी फिर सही हमको किसके ग़म ने..
हिन्दी कवि सम्मेलनों के मंचों पर किसी समय हरिवंशराय बच्चन जी का ऐसा नाम था, जिसके लोग दीवाने हुआ करते थे| वह उनकी मधुशाला हो या लोकगीत शैली में लिखा गया उनका गीत- ‘ए री महुआ के नीचे मोती झरें’, ‘अग्निपथ,अग्निपथ,अग्निपथ’ आदि-आदि|
एक बात माननी पड़ेगी मुझे उनको कवि-सम्मेलन में साक्षात सुनने का सौभाग्य नहीं मिला, हाँ एक बार आकाशवाणी में उनका साक्षात्कार हुआ था, जिसके लिए मैं अपने प्रोफेसर एवं कवि-मित्र स्वर्गीय डॉ सुखबीर सिंह जी के साथ उनको, नई दिल्ली में उनके घर से लेकर आया था, और इंटरव्यू के दौरान स्टूडिओ में उनके साथ था|
लीजिए प्रस्तुत है बच्चन जी का यह खूबसूरत गीत-
कोई पार नदी के गाता!
भंग निशा की नीरवता कर, इस देहाती गाने का स्वर, ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता! कोई पार नदी के गाता!
होंगे भाई-बंधु निकट ही, कभी सोचते होंगे यह भी, इस तट पर भी बैठा कोई उसकी तानों से सुख पाता! कोई पार नदी के गाता!
आज न जाने क्यों होता मन सुनकर यह एकाकी गायन, सदा इसे मैं सुनता रहता, सदा इसे यह गाता जाता! कोई पार नदी के गाता!
आज एक बार फिर मैं भारतीय उपमहाद्वीप में शायरी के क्षेत्र की एक महान शख्सियत रहे ज़नाब अहमद फ़राज़ साहब की एक प्रसिद्ध ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ| फराज़ साहब भारत में बहुत लोकप्रिय रहे हैं और अनेक प्रमुख ग़ज़ल गायकों ने उनके गीत-ग़ज़लों आदि को गाया है|
लीजिए प्रस्तुत है ये खूबसूरत ग़ज़ल-
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा|
इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जाएगा|
तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जाएगा|
किसी ख़ंज़र किसी तलवार को तक़्लीफ़ न दो मरने वाला तो फ़क़त बात से मर जाएगा|
ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जाएगा|
डूबते-डूबते कश्ती को उछाला दे दूँ मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जाएगा|
ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का “फ़राज़” ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जाएगा|
आज ‘इंडियन आइडल’ के एक ताज़ा एपिसोड को देखने के अनुभव को शेयर करना चाहूँगा| इस प्रोग्राम में अनेक युवा प्रतिभाएँ आती हैं, युवक-युवतियाँ हो गायन के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा के बल पर कुछ पाना चाहते हैं| इस प्रोग्राम में कुछ प्रतिष्ठित गायक, संगीतकार आदि निर्णायकों के रूप में और संगीत के क्षेत्र की कुछ बड़ी हस्तियाँ विशिष्ट अतिथि के रूप में सम्मिलित होती हैं|
एक उम्मीद इस कार्यक्रम के माध्यम से युवा गायक-गायिकाओं में पैदा होती है कि यहाँ प्राप्त अनुभव और अर्जित नाम के बल पर वे संगीत की दुनिया में अपना स्थान बना पाएंगे| अच्छी बात है उम्मीद पर दुनिया कायम है, यद्यपि हम जानते हैं कि ‘इंडियन आइडल’ के कितने प्रोग्राम अब तक हो चुके हैं और इनके माध्यम से कितने लोग संगीत की दुनिया में अपना स्थान बना पाए हैं!
हाल ही के जिस एपिसोड का अनुभव मैं शेयर कर रहा हूँ, उसमें लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की प्रसिद्ध जोड़ी के सदस्य प्यारेलाल जी शामिल हुए थे और उनके संगीतबद्ध किए गए गीत प्रतिभागियों ने गाकर सुनाए, और हमेशा की तरह इन युवा प्रतिभाओं ने अपनी अमिट छाप छोड़ी|
विशेष बात जिसका उल्लेख मैं करना चाहूँगा, और वास्तव में इसे देखकर धक्का भी लगा, वह थी प्रसिद्ध फिल्मी गीतकार – संतोषानंद जी का इस प्रोग्राम में आना| उनके बारे में काफी पहले यह तो सुना था कि उनका बेटा किसी बड़ी आर्थिक परेशानी में फंस गया था और यह मुझे याद नहीं था कि उनके बेटे और बहू ने आत्महत्या कर ली थी|
मैंने संतोषानंद जी को उनके शुरू के दिनों से ही दिल्ली में देखा है, उनको दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी के अपने कार्यक्रमों में और अन्य आयोजनों में भी आमंत्रित किया था और बहुत बाद में एनटीपीसी अपने आयोजन में भी बुलाया था|
एक बात तो मैं जानता हूँ कि शायद शुरू से ही संतोषानंद जी कभी अपने पैरों पर सीधे नहीं चल पाए, वे हमेशा से छड़ी लेकर चलते रहे और उनके साथ दुर्घटनाएँ भी होती रहीं, लेकिन इस कार्यक्रम में वे व्हीलचेयर पर जिस स्थिति में आए, उसे देखकर दिल दुखी हुआ, लकवा हो जाने के बाद और अपनी दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण, उनको देखकर लगा कि जैसे उस कुर्सी पर कोई बच्चा बिलख रहा या पुलक रहा हो|
एक बात और जिसने मुझे इस कार्यक्रम निर्णायक मण्डल में से एक- सुश्री नेहा कक्कड़ का मुरीद बना दिया| जी हाँ, कलाकार तो बहुत से होते हैं, परंतु नेहा जी जिस प्रकार संतोषानंद जी की दयनीय आर्थिक स्थिति के बारे में जानकर, जिस प्रकार द्रवित हो गईं, उनके आँसू रुक नहीं रहे थे और उन्होंने संतोषानंद जी के मना करने पर भी, जिस प्रकार आग्रह पूर्वक, खुद को उनकी पोती के रूप में प्रस्तुत करते हुए पाँच लाख रुपये की भेंट की, वह वास्तव में उनकी विशाल हृदयता का परिचय देता है|
आज संतोषानंद जी की इन गीत पंक्तियों को दोहराते हुए यही कामना करता हूँ कि उनका शेष जीवन सुख से बीते और ईश्वर नेहा जी को उनके इस नेक काम के लिए यश और धन से भरपूर जीवन दे|
एक प्यार का नगमा है मौजों की रवानी है, ज़िंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है|
कुछ पाकर खोना है कुछ खोकर पाना है, जीवन का मतलब तो आना और जाना है| दो पल के जीवन से इक उम्र चुरानी है|
आज, मैं फिर से भारत के नोबल पुरस्कार विजेता कवि गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर की एक और कविता का अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह उनकी अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित जिस कविता का भावानुवाद है, उसे अनुवाद के बाद प्रस्तुत किया गया है। आज भी मैंने अनुवाद के लिए अंग्रेजी कविता को ऑनलाइन उपलब्ध कविताओं में से लिया है, पहले प्रस्तुत है मेरे द्वारा किया गया उनकी कविता ‘How You Sing So Well?’ का भावानुवाद-
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता
तुम इतना मधुर कैसे गाते हो?
अरे प्रबुद्ध मित्र, तुम इतना मधुर कैसे गा लेते हो?
मैं चकित होकर सुनता हूँ,
पूर्णतः आह्लादित!
तुम्हारे गीत पूरे विश्व को चमत्कृत करते हैं,
और स्वर्ग लोकों में फैल जाते हैं,
यह पत्थरों को पिघलाते हैं, मार्ग की प्रत्येक वस्तु को चालित करते हैं,
अपने साथ ये स्वार्गिक संगीत ले जाते हैं|
यद्यपि तुम्हारी धुनों को मेरे स्वर, पकड़ नहीं पाते,
मैं उस महान शैली में गाना चाहता हूँ
परंतु जो मैं कहना चाहता हूँ, वह फंसा रह जाता है,
और मेरी आत्मा पराजित होकर चीत्कार करती है!
ये तुमने मेरे भीतर कैसी निश्चिंतता भर दी है?
तुम्हारे संगीत ने मुझे पूर्णतः मुग्ध कर दिया है!
–रवींद्रनाथ ठाकुर
और अब वह अंग्रेजी कविता, जिसके आधार पर मैं भावानुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ-
How You Sing So well
O wise one, how do you sing so well? I listen in amazement, completely enthralled! Your melodies light up the world And waft across heavens, Melting stones, driving everything in the way, Carrying along with them heavenly music. Though the tunes keep eluding my voice I feel like singing in that superb vein What I would like to say get stuck And my soul cries out, defeated! What trap have you ensnared me into? Your music has me fully in its thrall!
सप्ताहांत में लोग आराम के मूड में रहते हैं, ऐसे में मस्तिष्क पर ज्यादा बोझ नहीं डालना चाहिए| मैं देखता हूँ कि शनिवार-रविवार को पोस्ट करने वालों और पोस्ट पढ़ने वालों की संख्या भी कम होती है|
खैर आज मैं 1964 में रिलीज़ हुई फिल्म- ‘कोहरा’ का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| क़ैफी आज़मी साहब के लिखे इस गीत को हेमंत कुमार साहब ने अपने ही संगीत में निराले अंदाज़ में गाया है| हेमंत दा की आवाज़ वैसे ही लाजवाब थी और यह गीत तो लगता है कि जैसे उनकी आवाज़ में गाये जाने के लिए ही बना था|
लीजिए प्रस्तुत है ये नायाब गीत-
ये नयन डरे-डरे, ये जाम भरे-भरे ज़रा पीने दो, कल की किसको खबर, इक रात हो के निडर मुझे जीने दो|
रात हसीं, ये चाँद हसीं तू सबसे हसीं मेरे दिलबर, और तुझसे हसीं तेरा प्यार| तू जाने ना| ये नयन डरे डरे…
प्यार में है जीवन की खुशी देती है खुशी कई गम भी, मैं मान भी लूँ कभी हार तू माने ना| ये नयन डरे डरे…
मेरे घर में आजकल काक्रोच की समस्या काफी गंभीर है| कुछ समझ में नहीं आ रहा कि इनसे कैसे छुटकारा पाया जाए| कई बार जब हम इनको मारने के लिए स्प्रे करने लगते हैं तो पाते हैं कि बहुत छोटे-छोटे मासूम से काक्रोच सामने आते हैं। जो भी हो छोटा बच्चा अच्छा लगता है, इन पर प्यार करें तो क्या हम स्वयं से प्यार कर पाएंगे!
मेरे देश में भी आज कुछ ऐसी ही हालत है| काक्रोच हर कोने से प्रकट हो रहे हैं, किसान आंदोलन के बहाने से! वैसे यह आंदोलन अपने आप में बस गरीब किसान के नाम पर ही है| इस आंदोलन को लेकर ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में पूरे पेज का एक विज्ञापन छापा गया, जिसकी लागत लगभग एक लाख, पचास हजार डॉलर अर्थात एक करोड़ रुपए आती है| किस गरीब किसान संगठन ने खर्च की होगी ये रकम और क्यों!
सिर्फ इतना ही नहीं अमरीका में विज्ञापन के रूप में इस विषय में बनाई गई फिल्म भी करोड़ों में बनाकर दिखाई जा रही है| इसके अलावा ‘ग्रेटा थंबर्ग’ जैसे बिकाऊ ‘पर्यावरण विदों’ ने भी करोड़ों रुपये इसमें कूदने के लिए खाए हैं|
लेकिन जिस ‘टूलकिट’ का इस्तेमाल ‘ग्रेटा’ ने इस संबंध में प्रचार के लिए किया है, और यह बाकायदा ‘कार्य योजना’ है इस विषय को लेकर असंतोष भड़काने और दंगे फैलाने की, वह ‘टूलकिट’ भी हमारे यहाँ की एक मासूम सी बच्ची ने बनाई थी, जो ‘ग्रेटा’ के साथ अपनी चैट में यह स्वीकार करती है कि इसके कारण उस पर यूएपीए के अंतर्गत देशद्रोह संबंधी कार्रवाई हो सकती है|
हम अक्सर अपने देशभक्त नायकों के बारे में बात करते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि हमारे यहाँ देशद्रोही भी कम नहीं हुए हैं| मासूम बच्ची ‘दिशा रवि’ की छोटी उम्र का बहाना लेकर भी बहुत से मानवीयता वादी सामने आ गए हैं| वैसे आप यह देख सकते हैं कि ये विशेष लोग कभी देश के पक्ष में खड़े नहीं होते| किसान आंदोलन से जोड़कर जो देश-विरोधी काम किए गए, विशेष रूप से 26 जनवरी को, और जिनकी पूर्व योजना ‘टूलकिट’ आदि में दर्शाई गई, वह इन बेचारों को दिखाई ही नहीं देती|
देश और विदेश में फैला यह वर्ग, जिसमें खालिस्तानी भी सम्मान सहित शामिल हैं, आज के भारत का, और विशेष रूप से देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री मोदी जी का दुश्मन है और उनका मुक़ाबला करने के लिए ये लोग नैतिकता की परवाह न करते हुए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं|
वरना किसान आंदोलन में कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका समाधान न किया जा सके| परंतु ये लोग समाधान चाहते ही नहीं हैं| ये लोग तो इस आंदोलन को चुनावों से जोड़कर चलाना चाहते हैं|
देश से प्रेम करने वाले लोग यह विश्वास रखें कि यह लोग इस देश का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे, भले इनके विदेशी साथी कितना ही पैसा इस समस्या को बढ़ाने के लिए बहाते रहें|
आज फिर से पुरानी पोस्ट का दिन है, लीजिए मैं अपनी एक पुरानी पोस्ट, फिर से शेयर कर रहा हूँ|
निदा फाज़ली साहब की एक गज़ल है-
तन्हा तन्हा दुख झेलेंगे महफ़िल महफ़िल गाएँगे जब तक आँसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनाएँगे।
यह गज़ल पहले भी शायद मैंने शेयर की है, आज इस गज़ल का एक शेर खास तौर पर याद आ रहा था-
बच्चों के छोटे हाथों को, चांद सितारे छूने दो, चार किताबें पढकर ये भी, हम जैसे हो जाएंगे।
ऐसे ही खयाल आया कि आखिर कैसे हो जाते हैं, या हो गए हैं हम चार किताबें पढ़ने के बाद, पढ़-लिख लेने के बाद!
इस पर धर्मवीर भारती जी के गीत की पंक्तियां याद आती हैं-
सूनी सड़कों पर ये आवारा पांव,
माथे पर टूटे नक्षत्रों की छांव, कब तक, आखिर कब तक! चिंतित पेशानी पर अस्त-व्यस्त बाल, पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण भूचाल, कब तक आखिर कब तक!
और फिर लगे हाथ भारत भूषण जी के गीत की पंक्तियां याद आ रही हैं, जो शायद पहले भी शेयर की होंगी, लेकिन फिर उनको शेयर करने का मन हो रहा है-
चक्की पर गेंहू लिए खड़ा, मैं सोच रहा उखड़ा-उखड़ा, क्यों दो पाटों वाली चाकी, बाबा कबीर को रुला गई।
कंधे पर चढ़ अगली पीढ़ी, ज़िद करती है गुब्बारों की, यत्नों से कई गुना ऊंची, डाली है लाल अनारों की, हर भोर किरन पल भर बहला, काले कंबल में सुला गई।
लेखनी मिली थी गीतव्रता, प्रार्थना-पत्र लिखते बीती, जर्जर उदासियों के कपड़े, थक गई हंसी सींती-सींती, खंडित भी जाना पड़ा वहाँ, ज़िंदगी जहाँ भी बुला गई।
गीतों की जन्म-कुंडली में, संभावित थी यह अनहोनी, मोमिया मूर्ति को पैदल ही, मरुथल की दोपहरी ढोनी, खंडित भी जाना पड़ा वहाँ, ज़िंदगी जहाँ भी बुला गई!
बड़ा होने के बाद क्या-क्या झेलना पड़ता है इंसान को, और बच्चा कहता है मुझे तो ये चाहिए बस! और परिस्थिति जो भी हो, उसको वह वस्तु अक्सर मिल जाती है!
ये भी कहा जाता है कि जो आप पूरे मन से चाहोगे, वह आपको मिल जाएगा। उस परम पिता परमात्मा के सामने हम भी तो बच्चे ही हैं, और हाँ हमारा वह परम पिता, हमारी तरह मज़बूर भी नहीं है, अगर हमको पूरे मन से ऐसा मानना मंज़ूर हो!
खैर ज्यादा बड़ी बातें नहीं करूंगा, अंत में रमेश रंजक जी की ये पंक्तियां-
फैली है दूर तक परेशानी, तिनके सा तिरता हूँ तो क्या है, तुमसे नाराज़ तो नहीं हूँ मैं!
मैं दूंगा भाग्य की लकीरों को, रोशनी सवेरे की, देखूंगा कितने दिन चलती है, दुश्मनी अंधेरे की,
मकड़ी के जाले सी पेशानी, साथ लिए फिरता हूँ तो क्या है, टूटी आवाज़ तो नहीं हूँ मैं!
आखिर में यही दुआ है कि उम्र बढ़ते जाने के बावज़ूद, हमारे भीतर एक बच्चे जैसी आस्था, विश्वास और थोड़ी ज़िद भी बनी रहे!
आधुनिक उर्दू शायरी के प्रमुख हस्ताक्षर डॉ बशीर बद्र जी की एक ग़ज़ल आज शेयर कर रहा हूँ| डॉ बद्र शायरी में नया मुहावरा गढ़ने और प्रयोग करने के लिए जाने जाते हैं|
इस ग़ज़ल की विशेष बात ये है कि इसका अंतिम शेर जैसे एक मुहावरा बन गया, लोग अक्सर इसका प्रयोग करते हैं, ये जाने बिना कि यह किस ग़ज़ल से है|
लीजिए प्रस्तुत है ये खूबसूरत ग़ज़ल-
हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए, चराग़ों की तरह आँखें जलें, जब शाम हो जाए|
मैं ख़ुद भी एहतियातन, उस गली से कम गुजरता हूँ, कोई मासूम क्यों मेरे लिए, बदनाम हो जाए|
अजब हालात थे, यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर मुहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाए|
समन्दर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमको, हवायें तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाए
मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहाँ होगा, परिंदा आस्माँ छूने में जब नाकाम हो जाए|
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में, ज़िंदगी की शाम हो जाए|