न मैं चुप हूँ न गाता हूँ !

आज बिना किसी भूमिका के, हमारे लोकप्रिय पूर्व प्रधान मंत्री भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ|

स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी एक सहृदय मनुष्य और मंजे हुए राजनेता होने के साथ ही एक श्रेष्ठ कवि भी थे| लीजिए प्रस्तुत है वाजपेयी जी की एक कविता, जो मनाली के पहाड़ी इलाकों के एक अनुभव पर आधारित है –

न मैं चुप हूँ न गाता हूँ

सवेरा है मगर पूरब दिशा में
घिर रहे बादल
रूई से धुंधलके में
मील के पत्थर पड़े घायल
ठिठके पाँव
ओझल गाँव
जड़ता है न गतिमयता

स्वयं को दूसरों की दृष्टि से
मैं देख पाता हूं
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ


समय की सदर साँसों ने
चिनारों को झुलस डाला,
मगर हिमपात को देती
चुनौती एक दुर्ममाला,

बिखरे नीड़,
विहँसे चीड़,
आँसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर
अकेला गुनगुनाता हूँ।
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ


आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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हरी हरी दूब पर!

आज मैं भारत के पूर्व प्रधान मंत्री, महान राजनेता, अनूठे वक्ता और एक श्रेष्ठ कवि स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| स्वर्गीय वाजपेयी जी ने हर भूमिका में अपनी अमिट छाप छोड़ी है| जहां आज भी हम उनके ऐतिहासिक भाषणों को यदा-कदा सुनते रहते हैं वहीं उनकी कविताएं भी हमें उस महान व्यक्तित्व की याद दिलाती रहती हैं|

लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी की यह कविता-


हरी हरी दूब पर
ओस की बूंदें
अभी थीं,
अभी नहीं हैं|
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थी,
कहीं नहीं हैं|


क्काँयर की कोख से
फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में
पाँव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूँ
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बूंदों को ढूंढूँ?


सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्यों न मैं क्षण क्षण को जिऊँ?
कण-कण में बिखरे सौन्दर्य को पिऊँ?


सूर्य तो फिर भी उगेगा,
धूप तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूंद
हर मौसम में नहीं मिलेगी|



आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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