ज़नाब बेकल उत्साही जी भी किसी समय कवि-सम्मेलनों की शान हुआ कराते थे| आजकल तो लगता है कि उस तरह के कवि-सम्मेलन ही नहीं होते, वैसे भी मैं काफी समय पहले हिन्दी भाषी इलाका छोड़कर गोवा में आ गया हूँ, अब यहाँ कवि सम्मेलन की उम्मीद, वो भी इस कोरोना काल में! खैर पुराना समय याद आता है, जब विशेष रूप में दिल्ली में कवि सम्मेलनों का आनंद मिलता था|

आइए आज ज़नाब बेकल उत्साही जी की इस ग़ज़ल का आनंद लेते हैं-
ये दुनिया तुझसे मिलने का वसीला काट जाती है,
ये बिल्ली जाने कब से मेरा रस्ता काट जाती है|
पहुँच जाती हैं दुश्मन तक हमारी ख़ुफ़िया बातें भी,
बताओ कौन सी कैंची लिफ़ाफ़ा काट जाती है|
अजब है आजकल की दोस्ती भी, दोस्ती ऐसी,
जहाँ कुछ फ़ायदा देखा तो पत्ता काट जाती है|
तेरी वादी से हर इक साल बर्फ़ीली हवा आकर,
हमारे साथ गर्मी का महीना काट जाती है|
किसी कुटिया को जब “बेकल”महल का रूप देता हूँ,
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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