आज एक बार फिर से मैं अपने अत्यंत प्रिय गीतकार स्वर्गीय भारत भूषण जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| मैंने पहले भी उनके बहुत से गीत अपने ब्लॉग में शेयर की हैं| हमारी पीढ़ी इस बात पर गर्व कर सकती है कि हमें भारत भूषण जी जैसे महान गीतकार को साक्षात देखने और सुनने का अवसर मिल पाया|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय भारत भूषण जी का यह गीत-
फिर फिर बदल दिये कैलेण्डर तिथियों के संग संग प्राणों में लगा रेंगने अजगर सा डर सिमट रही साँसों की गिनती सुइयों का क्रम जीत रहा है!
पढ़कर कामायनी बहुत दिन मन वैराग्य शतक तक आया उतने पंख थके जितनी भी दूर दूर नभ में उड़ आया अब ये जाने राम कि कैसा अच्छा बुरा अतीत रहा है!
संस्मरण हो गई जिन्दगी कथा कहानी सी घटनाएँ कुछ मनबीती कहनी हो तो अब किसको आवाज लगाएँ कहने सुनने सहने दहने को केवल बस गीत रहा है!
अभी हमने श्रीरामनवमी के अवसर पर प्रभु श्रीराम जी को याद किया| इस अवसर पर मैं अपनी एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट दोहरा रहा हूँ |
आज फिर से मैं अपने प्रिय कवि/गीतकारों में से एक स्व. भारत भूषण जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ। इस रचना में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जलसमाधि का प्रसंग प्रस्तुत किया गया है। श्रीराम जो शिखर पर हैं, लोगों के प्रभु हैं, अयोध्या के नरेश हैं, जब प्रसंग के अनुसार वे जल-समाधि लेते हैं, वे किसी से कोई शिकायत नहीं कर सकते, शिखर पर व्यक्ति कितना अकेला होता है, वह ईश्वर का अवतार ही क्यों न हो!
श्रीराम की जल समाधि के प्रसंग में, वे जब जल में क्रमशः डूबते जाते हैं, तब उनके मन में क्या-क्या आता है, इसका बहुत सुंदर वर्णन स्व. भारत भूषण जी ने अपनी रचना में किया है। लीजिए प्रस्तुत है यह अति सुंदर रचना-
पश्चिम में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से, हारा-हारा, रीता-रीता, निःशब्द धरा, निःशब्द व्योम, निःशब्द अधर पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता।
किसलिए रहे अब ये शरीर, ये अनाथ मन किसलिए रहे, धरती को मैं किसलिए सहूँ, धरती मुझको किसलिए सहे। तू कहाँ खो गई वैदेही, वैदेही तू खो गई कहाँ, मुरझे राजीव नयन बोले, काँपी सरयू, सरयू काँपी, देवत्व हुआ लो पूर्णकाम, नीली माटी निष्काम हुई, इस स्नेहहीन देह के लिए, अब सांस-सांस संग्राम हुई।
ये राजमुकुट, ये सिंहासन, ये दिग्विजयी वैभव अपार, ये प्रियाहीन जीवन मेरा, सामने नदी की अगम धार, माँग रे भिखारी, लोक माँग, कुछ और माँग अंतिम बेला, इन अंचलहीन आँसुओं में नहला बूढ़ी मर्यादाएँ, आदर्शों के जलमहल बना, फिर राम मिलें न मिलें तुझको, फिर ऐसी शाम ढले न ढले।
ओ खंडित प्रणयबंध मेरे, किस ठौर कहां तुझको जोडूँ, कब तक पहनूँ ये मौन धैर्य, बोलूँ भी तो किससे बोलूँ, सिमटे अब ये लीला सिमटे, भीतर-भीतर गूँजा भर था, छप से पानी में पाँव पड़ा, कमलों से लिपट गई सरयू, फिर लहरों पर वाटिका खिली, रतिमुख सखियाँ, नतमुख सीता, सम्मोहित मेघबरन तड़पे, पानी घुटनों-घुटनों आया, आया घुटनों-घुटनों पानी। फिर धुआँ-धुआँ फिर अँधियारा, लहरों-लहरों, धारा-धारा, व्याकुलता फिर पारा-पारा।
फिर एक हिरन-सी किरन देह, दौड़ती चली आगे-आगे, आँखों में जैसे बान सधा, दो पाँव उड़े जल में आगे, पानी लो नाभि-नाभि आया, आया लो नाभि-नाभि पानी, जल में तम, तम में जल बहता, ठहरो बस और नहीं कहता, जल में कोई जीवित दहता, फिर एक तपस्विनी शांत सौम्य, धक धक लपटों में निर्विकार, सशरीर सत्य-सी सम्मुख थी, उन्माद नीर चीरने लगा, पानी छाती-छाती आया, आया छाती-छाती पानी।
आगे लहरें बाहर लहरें, आगे जल था, पीछे जल था, केवल जल था, वक्षस्थल था, वक्षस्थल तक केवल जल था। जल पर तिरता था नीलकमल, बिखरा-बिखरा सा नीलकमल, कुछ और-और सा नीलकमल, फिर फूटा जैसे ज्योति प्रहर, धरती से नभ तक जगर-मगर, दो टुकड़े धनुष पड़ा नीचे, जैसे सूरज के हस्ताक्षर, बांहों के चंदन घेरे से, दीपित जयमाल उठी ऊपर,
सर्वस्व सौंपता शीश झुका, लो शून्य राम लो राम लहर, फिर लहर-लहर, सरयू-सरयू, लहरें-लहरें, लहरें- लहरें, केवल तम ही तम, तम ही तम, जल, जल ही जल केवल, हे राम-राम, हे राम-राम हे राम-राम, हे राम-राम ।
आज एक बार फिर से मैं हिन्दी के एक महान गीतकार स्वर्गीय भारत भूषण जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| भारत भूषण जी के गीत पढ़ना और उससे भी अधिक जो सौभाग्य मुझे अनेक बार मिला, उनको गीत पाठ करते हुए सुनना एक दिव्य अनुभव होता था| उनके बहुत से गीत अमर हैं, जैसे- ‘चक्की पर गेंहू लिए खड़ा’, ‘आधी उमर करके धुआँ ये तो कहो किसके हुए’, ‘ मैं बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना’ आदि|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय भारत भूषण जी का यह गीत, जिसमें उन्होंने प्रेम में एक अलग ही अंदाज़ में उलाहना दिया है –
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए, पूनम वाला चांद तुझे भी सारी-सारी रात जगाए|
तुझे अकेले तन से अपने, बड़ी लगे अपनी ही शैय्या चित्र रचे वह जिसमें, चीरहरण करता हो कृष्ण-कन्हैया, बार-बार आँचल सम्भालते, तू रह-रह मन में झुंझलाए कभी घटा-सी घिरे नयन में, कभी-कभी फागुन बौराए| मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए|
बरबस तेरी दृष्टि चुरा लें, कंगनी से कपोत के जोड़े पहले तो तोड़े गुलाब तू, फिर उसकी पंखुडियाँ तोड़े, होठ थकें ‘हाँ’ कहने में भी, जब कोई आवाज़ लगाए चुभ-चुभ जाए सुई हाथ में, धागा उलझ-उलझ रह जाए| मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए|
बेसुध बैठ कहीं धरती पर, तू हस्ताक्षर करे किसी के नए-नए संबोधन सोचे, डरी-डरी पहली पाती के, जिय बिनु देह नदी बिनु वारी, तेरा रोम-रोम दुहराए ईश्वर करे हृदय में तेरे, कभी कोई सपना अँकुराए| मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए|
आज एक बार फिर से मैं अपने अत्यंत प्रिय गीतकार स्वर्गीय भारत भूषण जी का एक प्रेम गीत शेयर कर रहा हूँ| इस गीत में भारत भूषण जी ने प्रेम की अनूठी अभिव्यक्ति की है| भावुकता का अपना सौन्दर्य है और जो लोग भावुक हैं शायद वे ही इसे समझ सकते हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय भारत भूषण जी की यह सरस गीत –
जिस दिन भी बिछड गया मीता ढूँढ़ती फिरोगी लाखों में।
फिर कौन सामने बैठेगा बंगाली भावुकता पहने, दूरों-दूरों से लाएगा केशों को गंधों के गहने।
यह देह अजन्ता शैली-सी किसके गीतों में सँवरेगी। किसकी रातें महकाएँगीं जीने के मोड़ों की छुअनें।
फिर चाँद उछालेगा पानी किसकी समुन्दरी आँखों में।
दो दिन में ही बोझिल होगा मन का लोहा, तन का सोना। फैली बाँहों-सा दीखेगा सूनेपन में कोना-कोना।
अपनी रुचि-रंगों के चुनाव किसके कपडों में टाँकोगे, अखरेगा किसकी बातों में पूरी दिनचर्या ठप होना।
दरकेगी सरोवरी छाती धूलिया जेठ-बैसाखों में।
ये गुँथे-गुँथे बतियाते पल कल तक गूँगे हो जाएँगे, होंठों से उड़ते भ्रमर-गीत सूरज ढलते सो जाएँगे।
जितना उड़ती है आयु-परी इकलापन बढ़ता जाता है। सारा जीवन निर्धन करके ये पारस पल खो जाएँगे।
गोरा मुख लिए खड़े रहना खिड़की की स्याह सलाखों में।
आज एक बार फिर मैं अपने अत्यंत प्रिय गीतकार स्वर्गीय भारत भूषण जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| कुल मिलाकर गीत अक्सर भावुकता का ही व्यापार होते हैं, जैसे नीरज जी ने लिखा – ‘हूँ बहुत नादान करता हूँ ये नादानी, बेचकर खुशियां खरीदूँ आँख का पानी’ या भारत भूषण जी ने ही लिखा- ‘तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा, धरती के कागज़ पर मेरी तस्वीर अधूरी राहनी थी’| भारत भूषण जी का काव्य पाठ सुनना वास्तव में एक दिव्य अनुभव होता था|
लीजिए आज प्रस्तुत है भारत भूषण जी का यह गीत, जिसमें मन को बहलाने का प्रयास किया गया है-
मेरे मन-मिरगा नहीं मचल हर दिशि केवल मृगजल-मृगजल!
प्रतिमाओं का इतिहास यही उनको कोई भी प्यास नहीं तू जीवन भर मंदिर-मंदिर बिखराता फिर अपना दृगजल!
खौलते हुए उन्मादों को अनुप्रास बने अपराधों को निश्चित है बाँध न पाएगा झीने-से रेशम का आँचल!
भीगी पलकें भीगा तकिया भावुकता ने उपहार दिया सिर माथे चढा इसे भी तू ये तेरी पूजा का प्रतिफल!
स्वर्गीय भारत भूषण जी एक असाधारण प्रतिभा वाले कवि और गीतकार थे| भारत भूषण जी के गीतों को सुनना ही एक दिव्य अनुभव होता था| भारत भूषण जी के अनेक गीत मैंने पहले भी शेयर किए हैं, आज जो गीत शेयर कर रहा हूँ ‘बनफूल’ यह भी भारत भूषण जी का एक प्रसिद्ध गीत है|
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें जीवन में कुछ भी मनचाहा नहीं मिलता, इसका उदाहरण भारत भूषण जी ने ‘बनफूल’ के माध्यम से दिया है| इस गीत में बनफूल अपनी व्यथा सुनाते हुए यह भी कहता है कि मालिन, जो किसी भी दृष्टि से सुंदर नहीं है, लेकिन वह भी चुनने के लिए बनफूल की तरफ निगाह नहीं डालती, और वह जीवन भर उपेक्षित ही रहता है|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय भारत भूषण जी का यह लाजवाब गीत ‘बनफूल’-
मैं हूँ बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना, मैं भी उनमें जिनका जग में, जैसा आना वैसा जाना|
सिर पर अंबर की छत नीली, जिसकी सीमा का अंत नहीं मैं जहाँ उगा हूँ वहाँ कभी भूले से खिला वसंत नहीं, ऐसा लगता है जैसे मैं ही बस एक अकेला आया हूँ मेरी कोई कामिनी नहीं, मेरा कोई भी कंत नहीं, बस आसपास की गर्म धूल उड़ मुझे गोद में लेती है है घेर रहा मुझको केवल सुनसान भयावह वीराना|
सूरज आया कुछ जला गया, चंदा आया कुछ रुला गया आंधी का झोंका मरने की सीमा तक झूला झुला गया, छह ऋतुओं में कोई भी तो मेरी न कभी होकर आई जब रात हुई सो गया यहीं, जब भोर हुई कुलमुला गया, मोती लेने वाले सब हैं, ऑंसू का गाहक नहीं मिला जिनका कोई भी नहीं उन्हें सीखा न किसी ने अपनाना|
सुनता हूँ दूर कहीं मन्दिर, हैं पत्थर के भगवान जहाँ सब फूल गर्व अनुभव करते, बन एक रात मेहमान वहाँ, मेरा भी मन अकुलाता है, उस मन्दिर का आंगन देखूँ बिन मांगे जिसकी धूल परस मिल जाते हैं वरदान जहाँ, लेकिन जाऊँ भी तो कैसे, कितनी मेरी मजबूरी है उड़ने को पंख नहीं मेरे, सारा पथ दुर्गम अनजाना|
काली रूखी गदबदा बदन, कांसे की पायल झमकाती सिर पर फूलों की डलिया ले, हर रोज़ सुबह मालिन आती, ले गई हज़ारों हार निठुर, पर मुझको अब तक नहीं छुआ मेरी दो पंखुरियों से ही, क्या डलिया भारी हो जाती, मैं मन को समझाता कहकर, कल को ज़रूर ले जाएगी कोई पूरबला पाप उगा, शायद यूँ ही हो कुम्हलाना|
उस रोज़ इधर दुल्हा-दुल्हन को लिए पालकी आई थी अनगिनती कलियों-फूलों से, ज्यों अच्छी तरह सजाई थी, मैं रहा सोचता गुमसुम ही, ये भी हैं फूल और मैं भी सच कहता हूँ उस रात, सिसकियों में ही भोर जगाई थी, तन कहता मैं दुनिया में हूँ, मन को होता विश्वास नहीं इसमें मेरा अपराध नहीं, यदि मैं भी चाहूँ मुसकाना|
पूजा में चढ़ना होता तो, उगता माली की क्यारी में सुख सेज भाग्य में होती तो, खिलता तेरी फुलवारी में, ऐसे कुछ पुण्य नहीं मेरे, जो हाथ बढ़ा दे ख़ुद कोई ऐसे भी हैं जिनको जीना ही पड़ता है लाचारी में, कुछ घड़ियाँ और बितानी हैं, इस कठिन उपेक्षा में मुझको मैं खिला पता किसको होगा, झर जाऊंगा बे-पहचाना|
स्वर्गीय भारत भूषण जी हिन्दी काव्य मंचों के ऐसे दिव्य हस्ताक्षर थे कि जिनकी उपस्थिति काव्य मंच को गरिमा प्रदान करती थी| उनके अनेक गीत मैंने पहले शेयर की हैं
‘मैं बनफूल भला मेरा कैसा खिलना क्या मुरझाना’,
‘चक्की पर गेहूं लिए खड़ा, मैं सोच रहा उखड़ा उखड़ा, क्यों दो पाटों वाली चाकी बाबा कबीर को रुला गई’,
आधी उम्र करके धुआँ ये तो कहो किसके हुए‘|
भारत भूषण जी का जो गीत मैं आज शेयर कर रहा हूँ वह अपने आप में अलग तरह का गीत है| लीजिए आज प्रस्तुत है, भारत भूषण जी का यह गीत –
ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई बांह में है और कोई चाह में है और कोई|
साँप के आलिंगनों में मौन चन्दन तन पड़े हैं सेज के सपनो भरे कुछ फूल मुर्दों पर चढ़े हैं,
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई देह में है और कोई, नेह में है और कोई|
स्वप्न के शव पर खड़े हो मांग भरती हैं प्रथाएं कंगनों से तोड़ हीरा खा रहीं कितनी व्यथाएं,
ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई|
जो समर्पण ही नहीं हैं वे समर्पण भी हुए हैं देह सब जूठी पड़ी है प्राण फिर भी अनछुए हैं,
ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई हास में है और कोई, प्यास में है और कोई|
हिन्दी काव्य मंचों के एक अद्वितीय गीतकार जिनकी उपस्थिति से मंच को गरिमा और ऊंचाई मिलती थी, ऐसे स्वर्गीय भारत भूषण जी का एक और गीत आज शेयर कर रहा हूँ| भारत भूषण जी के अनेक गीत मैंने पहले भी शेयर किए हैं, आज प्रस्तुत है यह गीत|
रचना अपना परिचय स्वयं देती है, लीजिए प्रस्तुत है यह प्रेम में कुछ अलग ही परिस्थितियों का गीत-
जिस पल तेरी याद सताए, आधी रात नींद जग जाये ओ पाहन! इतना बतला दे उस पल किसकी बाहँ गहूँ मैं|
अपने अपने चाँद भुजाओं में भर भर कर दुनिया सोये सारी सारी रात अकेला मैं रोऊँ या शबनम रोये करवट में दहकें अंगारे, नभ से चंदा ताना मारे प्यासे अरमानों को मन में दाबे कैसे मौन रहूँ मैं|
गाऊँ कैसा गीत कि जिससे तेरा पत्थर मन पिघलाऊँ जाऊँ किसके द्वार जहाँ ये अपना दुखिया मन बहलाऊँ गली गली डोलूँ बौराया, बैरिन हुई स्वयं की छाया मिला नहीं कोई भी ऐसा जिससे अपनी पीर कहूं मैं|
टूट गया जिससे मन दर्पण किस रूपा की नजर लगी है घर घर में खिल रही चाँदनी मेरे आँगन धूप जगी है सुधियाँ नागन सी लिपटी हैं, आँसू आँसू में सिमटी हैं छोटे से जीवन में कितना दर्द-दाह अब और सहूँ मैं|
फटा पड़ रहा है मन मेरा पिघली आग बही काया में अब न जिया जाता निर्मोही गम की जलन भरी छाया में बिजली ने ज्यों फूल छुआ है, ऐसा मेरा हृदय हुआ है पता नहीं क्या क्या कहता हूँ, अपने बस में आज न हूँ मैं|
एक बार फिर से आज मैं हिन्दी के दुलारे गीतकार स्वर्गीय भारत भूषण जी का एक प्रेम की गहनता और पवित्रता से भरा गीत शेयर कर रहा हूँ| भावुकता और समर्पण वैसे तो जीवन में कठिनाई से ही कहीं काम आते हैं, आजकल बहुत कम मिलते हैं इनको समझने वाले, परंतु कवि-गीतकारों के लिए तो यह बहुत बड़ी पूंजी होती है, अनेक गीत इनके कारण ही जन्म लेते हैं|
लीजिए प्रस्तुत है भारत भूषण जी का यह खूबसूरत गीत-
सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ प्रिय मिलने का वचन भरो तो !
पलकों-पलकों शूल बुहारूँ अँसुअन सींचू सौरभ गलियाँ, भँवरों पर पहरा बिठला दूँ कहीं न जूठी कर दें कलियाँ| फूट पड़े पतझर से लाली तुम अरुणारे चरन धरो तो !
रात न मेरी दूध नहाई प्रात न मेरा फूलों वाला, तार-तार हो गया निमोही काया का रंगीन दुशाला|
जीवन सिंदूरी हो जाए तुम चितवन की किरन करो तो !
सूरज को अधरों पर धर लूँ काजल कर आँजूँ अँधियारी, युग-युग के पल छिन गिन-गिनकर बाट निहारूँ प्राण तुम्हारी| साँसों की जंज़ीरें तोड़ूँ तुम प्राणों की अगन हरो तो|
इस गीत के साथ मैं उस महान गीतकार का विनम्र स्मरण करता हूँ।
स्वर्गीय भारत भूषण जी मेरे परम प्रिय कवि रहे हैं, कवि सम्मेलनों में उनका कविता पाठ सुनना, वास्तव में वहाँ जाने की क्रिया को सार्थक कर देता था| बहुत भाव-विभोर होकर वे सस्वर काव्य-पाठ करते थे|
आज का भारत भूषण जी का यह गीत दर्शाता है कि किस प्रकार पूरे संयम और मर्यादा के साथ, सार्थक प्रणय गीत लिखा जा सकता है-
आज पहली बात पहली रात साथी|
चाँदनी ओढ़े धरा सोई हुई है, श्याम अलकों में किरण खोई हुई है| प्यार से भीगा प्रकृति का गात साथी, आज पहली बात पहली रात साथी|
मौन सर में कंज की आँखें मुंदी हैं, गोद में प्रिय भृंग हैं बाहें बँधी हैं, दूर है सूरज, सुदूर प्रभात साथी, आज पहली बात पहली रात साथी|
आज तुम भी लाज के बंधन मिटाओ, खुद किसी के हो चलो अपना बनाओ, है यही जीवन, नहीं अपघात साथी| आज पहली बात पहली रात साथी|