
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप न साया न सराब,
कितने अरमान हैं किस सहरा में
कौन रखता है मज़ारों का हिसाब|
कैफ़ी आज़मी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप न साया न सराब,
कितने अरमान हैं किस सहरा में
कौन रखता है मज़ारों का हिसाब|
कैफ़ी आज़मी
अपनी साँसों की ख़ुशबू लगे अजनबी,
मुझ पर तेरे बदन की महक छा गई।
नक़्श लायलपुरी
वो सितारा है चमकने दो यूँ ही आँखों में,
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो |
निदा फ़ाज़ली
वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में,
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा ।
गोपालदास “नीरज”
मैं देवता की तरह क़ैद अपने मंदिर में,
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है|
कृष्ण बिहारी ‘नूर’
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं,
कभी धरती के, कभी चांद नगर के हम हैं |
निदा फ़ाज़ली
ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा|
मीना कुमारी (महज़बीं बानो)
आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें,
मुझको ये वहम नहीं है कि खु़दा है मुझमें|
राजेश रेड्डी
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की
वर्ना ये फ़क़त आग बुझाने के लिए हैं|
जां निसार अख्तर