आज एक बार फिर मैं अपने अत्यंत प्रिय नवगीत कवि स्वर्गीय रमेश रंजक जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ, रंजक जी हिन्दी नवगीत साहित्य की ऐसी अदभुद प्रतिभा थे जिन्होंने और भी बहुत से रचनाकारों को नवगीत लिखने के लिए प्रेरित किया|
लीजिए, आज प्रस्तुत है स्वर्गीय रमेश रंजक जी का यह नवगीत –

कितनी खुली हुई है सबसे
ये चुलबुली किरन
(भोर की ये चुलबुली किरन)
घर-घर जाकर भीतर-बाहर
खींच रही है सबकी चादर
हर सोए की खाट उठाकर
फिर हो गई हिरन
घूम रही घर-घर में से
सारे घर इसके हों जैसे
खुल कर रही कैसे-कैसे
डर की नहीं शिकन
स्याही कोनों में सरका दी
चौंके की कुण्डी खड़का दी
ये आज़ादी की शहज़ादी
(बाँध रही छत के छिद्रों में)
टूटे हुए रिबन|
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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