हिन्दी के विख्यात व्यंग्यकार और कवि स्वर्गीय रवीन्द्रनाथ त्यागी जी की एक कविता आज शेयर कर रहा हूँ| त्यागी जी की इस कविता में भी व्यंग्यकार की दृष्टि परिलक्षित होती है|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय रवीन्द्रनाथ त्यागी जी की यह कविता –
सामने फ्लैट पर जाड़ों की सुबह ने अलसाकर जूड़ा बाँधा;
नीचे के तल्ले में मफ़लर से मुँह ढाँप सुबह ने सिगरेट पी
चिक पड़ी गोश्त की दुकान पर सुबह के टुकड़े-टुकड़े किए गए,
मेरे बरामदे में सुबह ने अख़बार फ़ेंका;
इसके बाद बन्बा खोल मांजने लगी बरतन
किनारे की बस्तियों से कमर पर गट्ठर लाद सुबह चली नदी की ओर;
सिगनल के पास मुँह में कोयला भरे लाल सीटी देती सुबह पुल पर गुज़री।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज फिर से अपने एक पुराने कवि-मित्र को याद कर रहा हूँ| उनके बारे में एक बात यह भी कि मैथिली शरण गुप्त जी शायद उनके नाना थे, या शायद दादा रहे हों, यह ठीक से याद नहीं, वैसे यह रिश्ता महत्वपूर्ण भी नहीं है, ऐसे ही याद आ गया|
हाँ तो मेरे यह मित्र थे स्वर्गीय नवीन सागर जी, कविताओं के अलावा बहुत अच्छी कहानियाँ भी लिखते थे और उनकी कहानियाँ उस समय धर्मयुग, सारिका आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थीं|
नवीन जी से शुरू की मुलाकातें तो अन्य मित्रों की तरह दिल्ली में ही हुईं, जब वे संघर्ष कर रहे थे, एक दो छोटी-मोटी पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने दिल्ली में काम किया, बाद में वे मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी में अच्छे पद पर तैनात हो गए| मेरे कुछ संबंधी भी उस समय भोपाल में थे और उसके बाद मेरा यह प्रयास रहता था कि जब भी भोपाल जाता था, उनसे अवश्य मिलता था|
नवीन सागर जी का बहुत पहले, वर्ष 2000 में लगभग 52 वर्ष की आयु में ही दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था, उस समय बहुत झटका लगा था| आज जब एक-एक करके कई वरिष्ठ साथी विदा हो रहे हैं, अचानक नवीन जी का खयाल आया|
अब और कुछ न कहते हुए, नवीन जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ, जो शहर की संवेदनहीनता को रेखांकित करती है-
आधी रात के वक़्त अपने शहर का रास्ता पराए शहर में भूला|
बड़ा भारी शहर और भारी सन्नाटा कोई वहाँ परिचित नहीं, परिचित सिर्फ़ आसमान जिसमें तारे नहीं ज़रा-सा चॉंद, परिचित सिर्फ़ पेड़ चिड़ियों की नींद में ऊँघते हुए, परिचित सिर्फ़ हवा रुकी हुई दीवारों के बीच उदासीन|
परिचित सिर्फ़ भिखारी आसमान से गिरे हुए चीथड़ों से, जहाँ-तहाँ पड़े हुए परिचित सिर्फ़ अस्पताल क़त्लगाह हमारे, परिचित सिर्फ़ स्टेशन आती-जाती गाड़ियों के मेले में अकेला छूटा हुआ रोशन|
परिचित सिर्फ़ परछाइयाँ: चीज़ों के अँधेरे का रंग, परिचित सिर्फ़ दरवाज़े बंद और मज़बूत।
इनमें से किसी से पूछता रास्ता कि अकस्मात एक चीख़ बहुत परिचित जहाँ जिस तरफ़ से उस तरफ़ को दिखा रास्ता|
कि तभी मज़बूत टायरों वाला ट्रक मिला जो रास्ते पर था, ट्रक ड्राइवर गाता हुआ चला रहा था मैं ऊँघता हुआ अपने शहर पहुँचा।
आज के लिए इतना ही, नमस्कार| ******** ________________________________________
स्वर्गीय डॉ राही मासूम रज़ा साहब हिन्दी-उर्दू साहित्य के एक प्रमुख रचनाकार रहे हैं| वे कविता, शायरी और उपन्यास लेखन, सभी क्षेत्रों में समान रूप से सक्रिय थे और पाठकों, श्रोताओं के चहेते रहे हैं| उनको अनेक साहित्यिक और राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए थे|
आज मैं डॉ राही मासूम रज़ा साहब की यह प्रसिद्ध गजल शेयर कर रहा हूँ-
अजनबी शहर के अजनबी रास्ते, मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे, मैं बहुत देर तक यूं ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रहे|
ज़हर मिलता रहा ज़हर पीते रहे, रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे, ज़िंदगी भी हमें आज़माती रही, और हम भी उसे आज़माते रहे|
ज़ख़्म जब भी कोई ज़ेह्न-ओ-दिल पे लगा, ज़िंदगी की तरफ़ एक दरीचा खुला, हम भी गोया किसी साज़ के तार हैं, चोट खाते रहे गुनगुनाते रहे|
कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया, इसलिये सुन के भी अनसुनी कर गया, इतनी यादों के भटके हुए कारवाँ, दिल के ज़ख़्मों के दर खटखटाते रहे|
सख़्त हालात के तेज़ तूफानों में , घिर गया था हमारा जुनून-ए-वफ़ा, हम चिराग़े-तमन्ना जलाते रहे, वो चिराग़े-तमन्ना बुझाते रहे|