
वह मर्द नहीं जो डर जाए, माहौल के ख़ूनी मंज़र से,
उस हाल में जीना लाज़िम है, जिस हाल में जीना मुश्किल है|
अर्श मलसियानी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
वह मर्द नहीं जो डर जाए, माहौल के ख़ूनी मंज़र से,
उस हाल में जीना लाज़िम है, जिस हाल में जीना मुश्किल है|
अर्श मलसियानी
मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन,
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है|
राहत इन्दौरी
दिल में न हो ज़ुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती,
खैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती|
निदा फ़ाज़ली
आज एक बार फिर से मैं हिन्दी काव्य मंचों पर गीतों के राजकुंवर के नाम से जिनको जाना जाता था, ऐसे स्वर्गीय गोपाल दास नीरज जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| नीरज जी जहां कवि सम्मेलनों में श्रोताओं का मन मोह लेते थे, वहीं हमारी हिन्दी फिल्मों में भी उन्होंने बहुत यादगार गीत दिए हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय गोपाल दास नीरज जी की यह रचना–
हार न अपनी मानूँगा मैं !
चाहे पथ में शूल बिछाओ
चाहे ज्वालामुखी बसाओ,
किन्तु मुझे जब जाना ही है —
तलवारों की धारों पर भी, हँस कर पैर बढ़ा लूँगा मैं !
मन में मरू-सी प्यास जगाओ,
रस की बूँद नहीं बरसाओ,
किन्तु मुझे जब जीना ही है —
मसल-मसल कर उर के छाले, अपनी प्यास बुझा लूँगा मैं !
हार न अपनी मानूंगा मैं !
चाहे चिर गायन सो जाए,
और ह्रदय मुरदा हो जाए,
किन्तु मुझे अब जीना ही है —
बैठ चिता की छाती पर भी, मादक गीत सुना लूँगा मैं !
हार न अपनी मानूंगा मैं !
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल,
हार जाने का हौसला है मुझे|
अहमद फ़राज़
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख ।
दुष्यंत कुमार
उसूलों पर जहां आंच आए टकराना ज़रूरी है,
जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है |
वसीम बरेलवी
यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन
ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं
दुष्यंत कुमार
एक पुराने दुख ने पूछा , क्या तुम अभी वहीं रहते हो,
उत्तर दिया चले मत आना, मैंने वो घर बदल लिया है!
शिशुपाल सिंह ‘निर्धन’
आज फिर से पुरानी पोस्ट का दिन है, लीजिए मैं अपनी एक पुरानी पोस्ट, फिर से शेयर कर रहा हूँ|
निदा फाज़ली साहब की एक गज़ल है-
तन्हा तन्हा दुख झेलेंगे महफ़िल महफ़िल गाएँगे
जब तक आँसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनाएँगे।
यह गज़ल पहले भी शायद मैंने शेयर की है, आज इस गज़ल का एक शेर खास तौर पर याद आ रहा था-
बच्चों के छोटे हाथों को, चांद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढकर ये भी, हम जैसे हो जाएंगे।
ऐसे ही खयाल आया कि आखिर कैसे हो जाते हैं, या हो गए हैं हम चार किताबें पढ़ने के बाद, पढ़-लिख लेने के बाद!
इस पर धर्मवीर भारती जी के गीत की पंक्तियां याद आती हैं-
सूनी सड़कों पर ये आवारा पांव,
माथे पर टूटे नक्षत्रों की छांव,
कब तक, आखिर कब तक!
चिंतित पेशानी पर अस्त-व्यस्त बाल,
पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण भूचाल,
कब तक आखिर कब तक!
और फिर लगे हाथ भारत भूषण जी के गीत की पंक्तियां याद आ रही हैं, जो शायद पहले भी शेयर की होंगी, लेकिन फिर उनको शेयर करने का मन हो रहा है-
चक्की पर गेंहू लिए खड़ा, मैं सोच रहा उखड़ा-उखड़ा,
क्यों दो पाटों वाली चाकी, बाबा कबीर को रुला गई।
कंधे पर चढ़ अगली पीढ़ी, ज़िद करती है गुब्बारों की,
यत्नों से कई गुना ऊंची, डाली है लाल अनारों की,
हर भोर किरन पल भर बहला, काले कंबल में सुला गई।
लेखनी मिली थी गीतव्रता, प्रार्थना-पत्र लिखते बीती,
जर्जर उदासियों के कपड़े, थक गई हंसी सींती-सींती,
खंडित भी जाना पड़ा वहाँ, ज़िंदगी जहाँ भी बुला गई।
गीतों की जन्म-कुंडली में, संभावित थी यह अनहोनी,
मोमिया मूर्ति को पैदल ही, मरुथल की दोपहरी ढोनी,
खंडित भी जाना पड़ा वहाँ, ज़िंदगी जहाँ भी बुला गई!
बड़ा होने के बाद क्या-क्या झेलना पड़ता है इंसान को, और बच्चा कहता है मुझे तो ये चाहिए बस! और परिस्थिति जो भी हो, उसको वह वस्तु अक्सर मिल जाती है!
ये भी कहा जाता है कि जो आप पूरे मन से चाहोगे, वह आपको मिल जाएगा। उस परम पिता परमात्मा के सामने हम भी तो बच्चे ही हैं, और हाँ हमारा वह परम पिता, हमारी तरह मज़बूर भी नहीं है, अगर हमको पूरे मन से ऐसा मानना मंज़ूर हो!
खैर ज्यादा बड़ी बातें नहीं करूंगा, अंत में रमेश रंजक जी की ये पंक्तियां-
फैली है दूर तक परेशानी,
तिनके सा तिरता हूँ तो क्या है,
तुमसे नाराज़ तो नहीं हूँ मैं!
मैं दूंगा भाग्य की लकीरों को,
रोशनी सवेरे की,
देखूंगा कितने दिन चलती है,
दुश्मनी अंधेरे की,
मकड़ी के जाले सी पेशानी,
साथ लिए फिरता हूँ तो क्या है,
टूटी आवाज़ तो नहीं हूँ मैं!
आखिर में यही दुआ है कि उम्र बढ़ते जाने के बावज़ूद, हमारे भीतर एक बच्चे जैसी आस्था, विश्वास और थोड़ी ज़िद भी बनी रहे!
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
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