हमारे काव्य मंचों पर हिन्दी के जो कुछ स्तरीय हास्य-व्यंग्य कवि रहे हैं, स्वर्गीय अल्हड़ बीकानेरी जी उनमें शामिल थे| अल्हड़ जी ने मंचों से हास्य व्यंग्य की अनेक स्तरीय रचनाएं हमें दी हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय अल्हड़ बीकानेरी जी की यह कविता जिसमें उन्होंने कुत्तों के बहाने कुछ अच्छी अभिव्यक्ति दी है–
रामू सेठ बहू से बोले, मत हो बेटी बोर कुत्ते तभी भौंकते हैं जब दिखें गली में चोर वफ़ादार होते हैं कुत्ते, नर हैं नमक हराम मिली जिसे कुत्ते की उपमा, चमका उसका नाम दिल्ली क्या, पूरी दुनिया में मचा हुआ है शोर|
हैं कुत्ते की दुम जैसे ही, टेढ़े सभी सवाल जो जबाव दे सके, कौन है वह माई का लाल देख रहे टकटकी लगा, सब स्वीडन की ओर|
प्रजातंत्र का प्रहरी कुत्ता, करता नहीं शिकार रूखा-सूखा टुकड़ा खाकर लेटे पाँव पसार बँगलों के बुलडॉग यहाँ सब देखे आदमख़ोर|
कुत्ते के बजाय कुरते का बैरी, यह नाचीज़ मुहावरों के मर्मज्ञों को, इतनी नहीं तमीज़ पढ़ने को नित नई पोथियाँ, रहे ढोर के ढोर|
दिल्ली के कुछ लोगों पर था चोरी का आरोप खोजी कुत्ता लगा सूँघने अचकन पगड़ी टोप जकड़ लिया कुत्ते ने मंत्री की धोती का छोर|
तो शामी केंचुआ कह उठा, ‘हूँ अजगर’ का बाप ऐसी पटकी दी पिल्ले ने, चित्त हुआ चुपचाप साँपों का कर चुके सफाया हरियाणा के मोर।
आज अपने एक मित्र और सहकर्मी के प्रसंग में बात करना चाहूँगा| ये मेरे साथी मेरे बॉस थे, परंतु उनसे बात करते हुए मुझे कभी यह लगा ही नहीं कि वो मेरे बॉस थे| वैसे इस तरह का अनुभव मेरा बहुत से लोगों के साथ रहा है, परंतु उन सबमें शायद ये सबसे सज्जन व्यक्ति थे|
लीजिए मैं उनका सरनेम बता देता हूँ- मिस्टर मूर्ति, हैदराबाद के रहने वाले थे, इतना जान लेने के बाद ही हम अक्सर किसी व्यक्ति को दक्षिण भारतीय अथवा यहाँ तक कि ‘मद्रासी’ भी कह देते हैं|
मूर्ति जी को इस पर सख्त आपत्ति थी, उनको अपनी अलग पहचान बहुत प्यारी थी, वे कहते थे कि वे मध्य भारत से हैं| एक-दो बार तो हमारी कंपनी के उच्च पदाधिकारियों ने उन पर एहसान जताते हुए उनका चेन्नई अथवा केरल स्थानांतरण करने का प्रस्ताव किया| उनका कहना था कि जहां वे मेरे साथ तैनात थे, उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में, वहाँ से अपने घर जाना उनके लिए ज्यादा आसान है, बनिस्बत केरल अथवा चेन्नई के अनेक इलाकों से वहाँ जाने के!
खैर मैं और मूर्ति जी हमउम्र भी थे और मैनेजमेंट द्वारा समान रूप से सताए गए भी| हम अक्सर अपने मन की बात खुलकर किया करते थे| हाँ मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि हम दोनों समान रूप से संवेदनशील भी थे| एक प्रसंग उनका बताया हुआ याद आ रहा है, कुल मिलाकर एक दृश्य है इस घटना में!
मूर्ति जी विशुद्ध रूप से शाकाहारी थे, मेरी ही तरह और उनके घर में उन्होंने किसी समय एक श्वान अथवा ‘डॉगी’ भी पाला हुआ था, दूसरा नाम लेने पर मुझे घर में डांट पड़ सकती है, वो तो बेचारे सड़क पर हुआ करते हैं| हाँ तो उनका यह डॉगी, नस्ल मुझे याद नहीं, उन्होंने बताई तो थी, ऐसे आकार का था, जैसा कोई घोड़े का बच्चा होता है| वे उसको घर पर सब्जियाँ आदि ही खिलाते थे, और वह उनको ही खाता था|
अब यह पता नहीं कि मूर्ति जी ने कब और कैसे यह डॉगी रख लिया था क्योंकि उनकी धर्मपत्नी को इस प्रजाति से बिल्कुल प्रेम नहीं था| जैसे-तैसे मूर्ति जी का प्रेम उसके प्रवास को खींचता रहा लेकिन अंत में संभवतः डॉगी को दूर करने की अपनी मांग के लिए उनकी धर्मपत्नी को, ऐसा मजबूत आधार मिल गया कि डॉगी को अब विदा किया ही जाए, और अंततः मूर्ति जी उसको शायद उसी तरह जंगल में छोड़कर आ गए, जैसे शायद लक्ष्मण जी सीता-माता को वन में छोड़कर आए होंगे|
मैंने बताया था कि यह प्रसंग एक क्षण का, अथवा कहें कि एक दृश्य का है| जैसा अभी तक हुआ वह तो बहुत बार हो चुका होगा शायद! मूर्ति जी भी धीरे-धीरे इसको भूल रहे थे| तभी की बात है कि कार द्वारा कहीं जाते समय वे एक सिग्नल पर रुके और कुछ सोच रहे थे, तभी उनको अपने गाल पर कुछ गीला स्पर्श महसूस हुआ, देखा तो उनका वही पुराना डॉगी, उसकी ऊंचाई तो अच्छी थी ही, उसने कार की विंडो में मुंह डालकर उनका मुंह चूम लिया था|
इस प्रसंग में, वास्तव में मुझे याद करते ही आँखों में आँसू आ जाते हैं, लेकिन यह संतोष की बात है कि वह डॉगी अपने नए परिवेश में ठीक से एडजस्ट हो गया था, हम ऐसे ही सोचते हैं, ऊपर वाला भी तो है ना सभी प्राणियों की रक्षा करने के लिए|