
अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम,
आदमी को भून कर खाने लगे हैं|
दुष्यंत कुमार
आसमान धुनिए के छप्पर सा
अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम,
आदमी को भून कर खाने लगे हैं|
दुष्यंत कुमार
मौलवी से डाँट खा कर अहले-मक़तब,
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं|
दुष्यंत कुमार
मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने,
उस तरफ़ जाने से क़तराने लगे हैं|
दुष्यंत कुमार
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है,
जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं|
दुष्यंत कुमार
वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको,
क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं|
दुष्यंत कुमार
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कमाल के फूल कुम्हलाने लगे हैं|
दुष्यंत कुमार
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं,
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं|
दुष्यंत कुमार
जिएं तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए|
दुष्यंत कुमार
ख़ुदा नहीं न सही, आदमी का ख़्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए|
दुष्यंत कुमार
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए|
दुष्यंत कुमार