वो कूचा वो मकाँ याद रहेगा!

उस शाम वो रुख़्सत का समाँ याद रहेगा,
वो शहर वो कूचा वो मकाँ याद रहेगा|

इब्न-ए-इंशा

आँसुओं से इन आँखों में आते रहे!

शाम आई तो बिछड़े हुए हम-सफ़र,
आँसुओं से इन आँखों में आते रहे|

वसीम बरेलवी

साथी, सांझ लगी अब होने!

हिन्दी गीत विधा में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले, अपने समय में कवि सम्मेलनों की शान रहे स्वर्गीय हरिवंशराय बच्चन जी की एक रचना आज शेयर कर रहा हूँ| इस कविता में बच्चन जी ने शाम के कुछ चित्र प्रस्तुत किए हैं| बच्चन जी की बहुत सी रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|

लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय हरिवंशराय बच्चन जी की यह कविता–


साथी, सांझ लगी अब होने!

फैलाया था जिन्हें गगन में,
विस्तृत वसुधा के कण-कण में,
उन किरणों को अस्तांचल पर पहुँच लगा है सूर्य सँजोने!
साथी, सांझ लगी अब होने!

खेल रही थी धूलि कणों में,
लोट लिपट तरु-गृह-चरणों में,
वह छाया, देखो, जाती है प्राची में अपने को खोने!
साथी, सांझ लगी अब होने!

मिट्टी से था जिन्हें बनाया,
फूलों से था जिन्हें सजाया,
खेल घिरौंदे छोड़ पथों पर चले गये हैं बच्चे सोने!
साथी, सांझ लगी अब होने!


(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|

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फिर मेल की सूरत क्यूँकर हो!

हम साँझ समय की छाया हैं तुम चढ़ती रात के चन्द्रमा,
हम जाते हैं तुम आते हो फिर मेल की सूरत क्यूँकर हो|

इब्न ए इंशा

डाली पे लौट भी जाते!

परिंदे होते तो डाली पे लौट भी जाते,
हमें न याद दिलाओ कि शाम हो गई है|

राजेश रेड्डी

समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं!

शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं,
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं|

वसीम बरेलवी

सिमट जाएँगे सारे रस्ते!

शाम होते ही सिमट जाएँगे सारे रस्ते,
बहते दरिया से जहाँ होगे ठहर जाओगे|

निदा फ़ाज़ली

कोई घर न खुला पाओगे!

शब है इस वक़्त कोई घर न खुला पाओगे,
आओ मय-ख़ाने का दरवाज़ा खुला है यारो|

कृष्ण बिहारी नू

जिसे शाम से डर लगता है!

तेरी क़ुर्बत के ये लम्हे उसे रास आएँ क्या,
सुब्ह होने का जिसे शाम से डर लगता है|

वसीम बरेलवी