आज मैं हिन्दी के अनूठे कवि स्वर्गीय भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविता शेयर कर रहा हूँ, जो बातचीत के लहज़े में सहज रूप से ही दिव्य बात कह जाते थे| भवानी दादा की आज की कविता परिवार के वातावरण पर आधारित है| लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय भवानी प्रसाद मिश्र जी की यह कविता –
बहुत छोटी जगह है घर जिसमें इन दिनों इजाज़त है मुझे
चलने फिरने की फिर भी बड़ी गुंजाइश है इसमें
तूफानों के घिरने की कभी बच्चे लड़ पड़ते हैं
कभी खड़क उठते हैं गुस्से से उठाये-धरे जाने वाले बर्तन घर में रहने वाले सात जनों के मन
लगातार सात मिनिट भी निश्चिंत नहीं रहते
कुछ-न-कुछ हो जाता है हर एक के मन को थोड़ी-थोड़ी ही देर में मगर
तूफ़ानों के इस फेर में पड़कर भी छोटी यह जगह
मेरे चलने फिरने लायक बराबर बनी रहती है
यों झुकी रहती है किसी की आँख भृकुटी किसी की तनी रहती है मगर सदस्य सब रहते हैं मन-ही-मन एक-दूसरे के प्रति
मेरे सुख की गति इसलिए अव्याहत है
कुंठित नहीं होती इस छोटी जगह में जिसे
घर कहते हैं और सिर्फ जहाँ इन दिनों
चलने फिरने की इजाज़त है मुझे!
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज एक बार फिर मैं स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| जैसे ईश्वर हर जगह पहुँचने के लिए स्वतंत्र होते हैं उसी प्रकार कवि की स्वतंत्रता भी अनंत है| अब इस कविता में ही देखी सर्वेश्वर जी ने ईश्वर को कौन सी ड्रेस पहना दी और उससे क्या काम करवा लिया| एक अलग अंदाज़ में सर्वेश्वर जी ने इस कविता में अपनी बात काही है लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की यह कविता –
बहुत बडी जेबों वाला कोट पहने ईश्वर मेरे पास आया था, मेरी मां, मेरे पिता, मेरे बच्चे और मेरी पत्नी को खिलौनों की तरह, जेब में डालकर चला गया और कहा गया, बहुत बडी दुनिया है तुम्हारे मन बहलाने के लिए।
मैंने सुना है, उसने कहीं खोल रक्खी है खिलौनों की दुकान, अभागे के पास कितनी जरा-सी पूंजी है रोजगार चलाने के लिए।
आज फिर से मैं एक श्रेष्ठ गीतकार, सरल व्यक्तित्व के धनी और मेरे लिए बड़े भाई जैसे स्वर्गीय किशन सरोज जी का एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ| किशन जी प्रेम के अनूठे कवि थे, यह रचना कुछ अलग तरह की है लेकिन उतनी ही प्रभावशाली है|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय किशन सरोज जी का यह गीत, जो यह अभिव्यक्त करता है कि प्रेम के वशीभूत होकर इंसान क्या-क्या नहीं करता है –
दो बूंदें दृग से ढलका तुमने, बादल-बादल भटकाया हमको|
आग लगी मन-प्राणों में ऐसी सिवा राख के कुछ भी नहीं बचा लिखना था क्या-क्या लेकिन हमने सिवा गीत के कुछ भी नहीं रचा, गीतों की सौगात सौँप तुमने पागल-पागल भटकाया हमको|
हर प्रात: पुरवा संग हम घूमे दिन-दिन भर सूरज के साथ चले, हर संध्या जुगनू-जुगनू दमके रात-रात भर बनकर दिया जले| झलक दिखा घूंघट-पट की तुमने आंचल-आंचल भटकाया हमको|
आज एक बार फिर से मैं स्वर्गीय भवानी प्रसाद मिश्र जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| भवानी दादा अपनी ही अलग किस्म के कवि थे जो बातचीत के लहज़े में कभी-कभी बहुत दिव्य बात कह जाते थे| जैसे कवि कालिदास जी ने बादलों के माध्यम से अपने प्रेम का संदेश भेजा था, इस कविता में जीवन की जटिलताओं का संदेश बरसते सावन के माध्यम से भेजने का प्रयास किया जा रहा है|
लीजिए आज प्रस्तुत हैं स्वर्गीय भवानी प्रसाद मिश्र जी की यह कविता –
आज पानी गिर रहा है, बहुत पानी गिर रहा है, रात भर गिरता रहा है, प्राण मन घिरता रहा है,
अब सवेरा हो गया है, कब सवेरा हो गया है, ठीक से मैंने न जाना, बहुत सोकर सिर्फ़ माना—
क्योंकि बादल की अँधेरी, है अभी तक भी घनेरी, अभी तक चुपचाप है सब, रातवाली छाप है सब,
गिर रहा पानी झरा-झर, हिल रहे पत्ते हरा-हर, बह रही है हवा सर-सर, काँपते हैं प्राण थर-थर,
बहुत पानी गिर रहा है, घर नज़र में तिर रहा है, घर कि मुझसे दूर है जो, घर खुशी का पूर है जो,
घर कि घर में चार भाई, मायके में बहिन आई, बहिन आई बाप के घर, हाय रे परिताप के घर!
आज का दिन दिन नहीं है, क्योंकि इसका छिन नहीं है, एक छिन सौ बरस है रे, हाय कैसा तरस है रे,
घर कि घर में सब जुड़े है, सब कि इतने कब जुड़े हैं, चार भाई चार बहिनें, भुजा भाई प्यार बहिनें,
और माँ बिन-पढ़ी मेरी, दुःख में वह गढ़ी मेरी माँ कि जिसकी गोद में सिर, रख लिया तो दुख नहीं फिर,
माँ कि जिसकी स्नेह-धारा, का यहाँ तक भी पसारा, उसे लिखना नहीं आता, जो कि उसका पत्र पाता।
और पानी गिर रहा है, घर चतुर्दिक घिर रहा है, पिताजी भोले बहादुर, वज्र-भुज नवनीत-सा उर,
पिताजी जिनको बुढ़ापा, एक क्षण भी नहीं व्यापा, जो अभी भी दौड़ जाएँ, जो अभी भी खिलखिलाएँ,
मौत के आगे न हिचकें, शेर के आगे न बिचकें, बोल में बादल गरजता, काम में झंझा लरजता,
आज गीता पाठ करके, दंड दो सौ साठ करके, खूब मुगदर हिला लेकर, मूठ उनकी मिला लेकर,
जब कि नीचे आए होंगे, नैन जल से छाए होंगे, हाय, पानी गिर रहा है, घर नज़र में तिर रहा है,
चार भाई चार बहिनें, भुजा भाई प्यार बहिने, खेलते या खड़े होंगे, नज़र उनको पड़े होंगे।
पिताजी जिनको बुढ़ापा, एक क्षण भी नहीं व्यापा, रो पड़े होंगे बराबर, पाँचवे का नाम लेकर,
पाँचवाँ हूँ मैं अभागा, जिसे सोने पर सुहागा, पिता जी कहते रहें है, प्यार में बहते रहे हैं,
आज उनके स्वर्ण बेटे, लगे होंगे उन्हें हेटे, क्योंकि मैं उन पर सुहागा बँधा बैठा हूँ अभागा,
और माँ ने कहा होगा, दुःख कितना बहा होगा, आँख में किसलिए पानी, वहाँ अच्छा है भवानी,
वह तुम्हारा मन समझकर, और अपनापन समझकर, गया है सो ठीक ही है, यह तुम्हारी लीक ही है,
पाँव जो पीछे हटाता, कोख को मेरी लजाता, इस तरह होओ न कच्चे, रो पड़ेंगे और बच्चे,
पिताजी ने कहा होगा, हाय, कितना सहा होगा, कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ, धीर मैं खोता, कहाँ हूँ,
गिर रहा है आज पानी, याद आता है भवानी, उसे थी बरसात प्यारी, रात-दिन की झड़ी-झारी,
खुले सिर नंगे बदन वह, घूमता-फिरता मगन वह, बड़े बाड़े में कि जाता, बीज लौकी का लगाता,
तुझे बतलाता कि बेला ने फलानी फूल झेला, तू कि उसके साथ जाती, आज इससे याद आती,
मैं न रोऊँगा,—कहा होगा, और फिर पानी बहा होगा, दृश्य उसके बाद का रे, पाँचवें की याद का रे,
भाई पागल, बहिन पागल, और अम्मा ठीक बादल, और भौजी और सरला, सहज पानी,सहज तरला,
शर्म से रो भी न पाएँ, ख़ूब भीतर छटपटाएँ, आज ऐसा कुछ हुआ होगा, आज सबका मन चुआ होगा।
अभी पानी थम गया है, मन निहायत नम गया है, एक से बादल जमे हैं, गगन-भर फैले रमे हैं,
ढेर है उनका, न फाँकें, जो कि किरणें झुकें-झाँकें, लग रहे हैं वे मुझे यों, माँ कि आँगन लीप दे ज्यों,
गगन-आँगन की लुनाई, दिशा के मन में समाई, दश-दिशा चुपचाप है रे, स्वस्थ मन की छाप है रे,
झाड़ आँखें बन्द करके, साँस सुस्थिर मंद करके, हिले बिन चुपके खड़े हैं, क्षितिज पर जैसे जड़े हैं,
एक पंछी बोलता है, घाव उर के खोलता है, आदमी के उर बिचारे, किसलिए इतनी तृषा रे,
तू ज़रा-सा दुःख कितना, सह सकेगा क्या कि इतना, और इस पर बस नहीं है, बस बिना कुछ रस नहीं है,
हवा आई उड़ चला तू, लहर आई मुड़ चला तू, लगा झटका टूट बैठा, गिरा नीचे फूट बैठा,
तू कि प्रिय से दूर होकर, बह चला रे पूर होकर, दुःख भर क्या पास तेरे, अश्रु सिंचित हास तेरे !
पिताजी का वेश मुझको, दे रहा है क्लेश मुझको, देह एक पहाड़ जैसे, मन की बड़ का झाड़ जैसे,
एक पत्ता टूट जाए, बस कि धारा फूट जाए, एक हल्की चोट लग ले, दूध की नद्दी उमग ले,
एक टहनी कम न होले, कम कहाँ कि ख़म न होले, ध्यान कितना फ़िक्र कितनी, डाल जितनी जड़ें उतनी !
इस तरह क हाल उनका, इस तरह का ख़याल उनका, हवा उनको धीर देना, यह नहीं जी चीर देना,
हे सजीले हरे सावन, हे कि मेरे पुण्य पावन, तुम बरस लो वे न बरसें, पाँचवे को वे न तरसें,
मैं मज़े में हूँ सही है, घर नहीं हूँ बस यही है, किन्तु यह बस बड़ा बस है, इसी बस से सब विरस है,
किन्तु उनसे यह न कहना, उन्हें देते धीर रहना, उन्हें कहना लिख रहा हूँ, उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ,
काम करता हूँ कि कहना, नाम करता हूँ कि कहना, चाहते है लोग, कहना, मत करो कुछ शोक कहना,
और कहना मस्त हूँ मैं, कातने में व्यस्त हूँ मैं, वज़न सत्तर सेर मेरा, और भोजन ढेर मेरा,
कूदता हूँ, खेलता हूँ, दुख डट कर झेलता हूँ, और कहना मस्त हूँ मैं, यों न कहना अस्त हूँ मैं,
हाय रे, ऐसा न कहना, है कि जो वैसा न कहना, कह न देना जागता हूँ, आदमी से भागता हूँ,
कह न देना मौन हूँ मैं, ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं, देखना कुछ बक न देना, उन्हें कोई शक न देना,
हे सजीले हरे सावन, हे कि मेरे पुण्य पावन, तुम बरस लो वे न बरसे, पाँचवें को वे न तरसें ।
आज मैं श्रेष्ठ नवगीत एवं ग़ज़ल लेखक स्वर्गीय ओम प्रभाकर जी का एक छोटा सा और खूबसूरत नवगीत प्रस्तुत कर रहा हूँ| किस प्रकार हम अनेक प्रकार से अपने घर से जुड़े होते हैं| पुराने ग्रामीण परिवेश को याद करके इस गीत का और भी अच्छा आस्वादन किया जा सकता है|
लीजिए प्रस्तुत है स्वर्गीय ओम प्रभाकर जी का यह नवगीत –
जैसे-जैसे घर नियराया।
बाहर बापू बैठे दीखे लिए उम्र की बोझिल घड़ियां। भीतर अम्मा रोटी करतीं लेकिन जलती नहीं लकड़ियां।
कैसा है यह दृश्य कटखना मैं तन से मन तक घबराया।
दिखा तुम्हारा चेहरा ऐसे जैसे छाया कमल-कोष की। आंगन की देहरी पर बैठी लिए बुनाई थालपोश की।
आज स्वर्गीय कैलाश गौतम जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| अपने संस्थान में कवि सम्मेलनों का आयोजन करते-करते कैलाश जी से अच्छी मित्रता हो गई थी, बहुत सरल हृदय व्यक्ति थे| उनकी रचनाएँ जो बहुत प्रसिद्ध थीं, उनमें ‘अमौस्या का मेला’ और ‘कचहरी’ – ‘भले डांट घर में तू बीवी की खाना, भले जाके जंगल में धूनी रमाना,—- मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना’| बहुत जबर्दस्त माहौल बनाती है ये कविता|
फिलहाल आज की कविता का आनंद लीजिए, यह भी कैलाश गौतम जी की एक सुंदर रचना है-
आज का मौसम कितना प्यारा कहीं चलो ना, जी ! बलिया, बक्सर, पटना, आरा कहीं चलो ना, जी !
हम भी ऊब गए हैं इन ऊँची दीवारों से, कटकर जीना पड़ता है मौलिक अधिकारों से । मानो भी प्रस्ताव हमारा कहीं चलो ना, जी !
बोल रहा है मोर अकेला आज सबेरे से, वन में लगा हुआ है मेला आज सबेरे से । मेरा भी मन पारा -पारा कहीं चलो ना, जी !
झील ताल अमराई पर्वत कबसे टेर रहे, संकट में है धूप का टुकड़ा बादल घेर रहे । कितना कोई करे किनारा कहीं चलो ना, जी !
सुनती नहीं हवा भी कैसी आग लगाती है, भूख जगाती है यह सोई प्यास जगाती है । सूख न जाए रस की धारा कहीं चलो ना, जी !
अमीर खुसरो जी की एक रचना आज शेयर कर रहा हूँ| खुसरो जी एक सूफी, आध्यात्मिक कवि थे, और ऐसा भी माना जाता है की खड़ी बोली में कविता का प्रारंभ उनसे ही हुआ था| उनका जन्म 1253 ईस्वी में पटियाली में हुआ था और देहांत 1325 ईस्वी में दिल्ली में हुआ|
लीजिए प्रस्तुत है बेटी की विदाई के अवसर से जुड़ी, खुसरो जी की यह रचना, जो आज भी लोकप्रिय है-
काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे काहे को ब्याहे बिदेस|
भैया को दियो बाबुल महले दो-महले हमको दियो परदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे| काहे को ब्याहे बिदेस|
हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ जित हाँके हँक जैहें अरे, लखिय बाबुल मोरे| काहे को ब्याहे बिदेस|
हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ घर-घर माँगे हैं जैहें अरे, लखिय बाबुल मोरे| काहे को ब्याहे बिदेस|
कोठे तले से पलकिया जो निकली बीरन में छाए पछाड़ अरे, लखिय बाबुल मोरे| काहे को ब्याहे बिदेस|
हम तो हैं बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ भोर भये उड़ जैहें अरे, लखिय बाबुल मोरे| काहे को ब्याहे बिदेस|
तारों भरी मैंने गुड़िया जो छोडी छूटा सहेली का साथ अरे, लखिय बाबुल मोरे| काहे को ब्याहे बिदेस|
डोली का पर्दा उठा के जो देखा आया पिया का देस अरे, लखिय बाबुल मोरे| काहे को ब्याहे बिदेस|