कोई भी फूल मुरझाया न था!

सिर्फ़ ख़ुश्बू की कमी थी ग़ौर के क़ाबिल ‘क़तील’,
वर्ना गुलशन में कोई भी फूल मुरझाया न था|

क़तील शिफ़ाई

अगर शाख़ों से धोखा खाते हैं!

कौन बचाएगा फिर तोड़ने वालों से,
फूल अगर शाख़ों से धोखा खाते हैं|

वसीम बरेलवी

डाली के हो कर रह जाते हैं!

ख़ुश्बू अपने रस्ते ख़ुद तय करती है,
फूल तो डाली के हो कर रह जाते हैं|

वसीम बरेलवी

मुझे ताज-ओ-तख़्त ख़ुदा न दे!

मैं ग़ज़ल की शबनमी आँख से ये दुखों के फूल चुना करूँ,
मिरी सल्तनत मिरा फ़न रहे मुझे ताज-ओ-तख़्त ख़ुदा न दे|

बशीर बद्र

बहार थी बुलबुल तिरे तराने में!

ये गुल खिले हैं कि चोटें जिगर की उभरी हैं,
निहाँ बहार थी बुलबुल तिरे तराने में|

फ़िराक़ गोरखपुरी

तेरे आने के ज़माने आए!

फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं,
तेरे आने के ज़माने आए|

अहमद फ़राज़

अब बहते हैं आँसू बहने दो!

ये फूल चमन में कैसा खिला माली की नज़र में प्यार नहीं,
हँसते हुए क्या क्या देख लिया अब बहते हैं आँसू बहने दो|

कैफ़ी आज़मी

यही रीत है ऐ शाख़-ए-गुल!

इस गुलिस्ताँ की यही रीत है ऐ शाख़-ए-गुल,
तूने जिस फूल को पाला वो पराया होगा|

कैफ़ भोपाली

फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं!

दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं,
ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं|

जावेद अख़्तर

काँटों से दोस्ती कर ली!

मिले न फूल तो काँटों से दोस्ती कर ली,
इसी तरह से बसर हम ने ज़िंदगी कर ली|

कैफ़ी आज़मी