
सिर्फ़ ख़ुश्बू की कमी थी ग़ौर के क़ाबिल ‘क़तील’,
वर्ना गुलशन में कोई भी फूल मुरझाया न था|
क़तील शिफ़ाई
आसमान धुनिए के छप्पर सा
सिर्फ़ ख़ुश्बू की कमी थी ग़ौर के क़ाबिल ‘क़तील’,
वर्ना गुलशन में कोई भी फूल मुरझाया न था|
क़तील शिफ़ाई
कौन बचाएगा फिर तोड़ने वालों से,
फूल अगर शाख़ों से धोखा खाते हैं|
वसीम बरेलवी
ख़ुश्बू अपने रस्ते ख़ुद तय करती है,
फूल तो डाली के हो कर रह जाते हैं|
वसीम बरेलवी
मैं ग़ज़ल की शबनमी आँख से ये दुखों के फूल चुना करूँ,
मिरी सल्तनत मिरा फ़न रहे मुझे ताज-ओ-तख़्त ख़ुदा न दे|
बशीर बद्र
ये गुल खिले हैं कि चोटें जिगर की उभरी हैं,
निहाँ बहार थी बुलबुल तिरे तराने में|
फ़िराक़ गोरखपुरी
फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं,
तेरे आने के ज़माने आए|
अहमद फ़राज़
ये फूल चमन में कैसा खिला माली की नज़र में प्यार नहीं,
हँसते हुए क्या क्या देख लिया अब बहते हैं आँसू बहने दो|
कैफ़ी आज़मी
इस गुलिस्ताँ की यही रीत है ऐ शाख़-ए-गुल,
तूने जिस फूल को पाला वो पराया होगा|
कैफ़ भोपाली
दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं,
ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं|
जावेद अख़्तर
मिले न फूल तो काँटों से दोस्ती कर ली,
इसी तरह से बसर हम ने ज़िंदगी कर ली|
कैफ़ी आज़मी