
दश्त में प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं,
हम परिंदे कहीं जाते हुए मर जाते हैं|
अब्बास ताबिश
आसमान धुनिए के छप्पर सा
दश्त में प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं,
हम परिंदे कहीं जाते हुए मर जाते हैं|
अब्बास ताबिश
बहार-ए-गुल में दीवानों का सहरा में परा होता,
जिधर उठती नज़र कोसों तलक जंगल हरा होता|
चकबस्त बृज नारायण
परछाईं के इस जंगल में क्या कोई मौजूद नहीं,
इस दश्त-ए-तन्हाई से कब लोग रिहाई पाएँगे|
राही मासूम रज़ा
इसी से जलते हैं सहरा-ए-आरज़ू में चराग़,
ये तिश्नगी तो मुझे ज़िंदगी से प्यारी है|
वसीम बरेलवी
ऐ मिरे अब्र-ए-करम देख ये वीराना-ए-जाँ,
क्या किसी दश्त पे तू ने कभी बारिश नहीं की|
अहमद फ़राज़
ऐ आवारा यादो फिर ये फ़ुर्सत के लम्हात कहाँ,
हमने तो सहरा में बसर की तुमने गुज़ारी रात कहाँ|
राही मासूम रज़ा
होता है यूँ भी, रास्ता खुलता नहीं कहीं,
जंगल-सा फैल जाता है खोया हुआ सा कुछ|
निदा फ़ाज़ली
जो हवा में घर बनाया काश कोई देखता,
दश्त में रहते थे पर तामीर की हसरत भी थी|
मुनीर नियाज़ी
शोर यूं ही न परिंदों ने मचाया होगा,
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा|
कैफ़ी आज़मी
इक ज़माना था कई ख्वाबों से आबाद था मैं,
अब तो ले दे के बस इक दश्त बचा है मुझमें|
राजेश रेड्डी