आज हिन्दी काव्य मंचों के एक अत्यंत लोकप्रिय गीतकार रहे स्वर्गीय गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| नेपाली जी प्रेम और ओज दोनों प्रकार के गीतों के लिए जाने जाते थे|
लीजिए प्रस्तुत है नेपाली जी यह गीत-
तन का दिया, प्राण की बाती, दीपक जलता रहा रात-भर ।
दु:ख की घनी बनी अँधियारी, सुख के टिमटिम दूर सितारे, उठती रही पीर की बदली, मन के पंछी उड़-उड़ हारे ।
बची रही प्रिय की आँखों से, मेरी कुटिया एक किनारे, मिलता रहा स्नेह रस थोड़ा, दीपक जलता रहा रात-भर ।
दुनिया देखी भी अनदेखी, नगर न जाना, डगर न जानी; रंग देखा, रूप न देखा, केवल बोली ही पहचानी,
कोई भी तो साथ नहीं था, साथी था ऑंखों का पानी, सूनी डगर सितारे टिमटिम, पंथी चलता रहा रात-भर ।
अगणित तारों के प्रकाश में, मैं अपने पथ पर चलता था, मैंने देखा, गगन-गली में, चाँद-सितारों को छलता था ।
आँधी में, तूफ़ानों में भी, प्राण-दीप मेरा जलता था, कोई छली खेल में मेरी, दिशा बदलता रहा रात-भर ।
आज एक बार फिर से मैं अपने एक अत्यंत प्रिय कवि रहे स्वर्गीय किशन सरोज जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| किशन जी को अनेक बार सुनने और अनेक बार उनसे मिलने का अवसर मिला, ये मेरा सौभाग्य था, अत्यंत सरल, सौम्य और शालीन व्यक्ति थे|
आज की रचना, में किशन सरोज जी ने जीवन की मृगतृष्णा को बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी है-
सैलानी नदिया के संग–संग
हार गये वन चलते–चलते|
फिर आईं पातियां गुलाबों की
फिर नींदें हो गईं पराई,
भूल सही, पर कब तक कौन करे
अपनी ही देह से लड़ाई|
साधा जब जूही ने पुष्प-बान
थम गया पवन चलते–चलते|
राजपुरुष हो या हो वैरागी
सबके मन कोई कस्तूरी,
मदिरालय हो अथवा हो काशी
हर तीरथ-यात्रा मजबूरी|
अपने ही पाँव, गंध अपनी ही,
थक गये हिरन चलते–चलते|
आज के लिए इतना ही
नमस्कार
*********
कल मैंने अपने एक संस्मरण में, एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से अन्य लोगों के साथ स्वर्गीय कुमार शिव जी को भी याद किया था और उनके एक-दो गीतों का उल्लेख किया था| आज उनको श्रद्धांजलि स्वरूप उनका एक पूरा गीत यहाँ दे रहा हूँ| इस गीत में उन्होंने अपनी खुद्दारी की प्रभावी अभिव्यक्ति की है|
लीजिए आज प्रस्तुत है, स्वर्गीय कुमार शिव जी का यह गीत –
काले कपड़े पहने हुए सुबह देखी देखी हमने अपनी सालगिरह देखी !
हमको सम्मानित होने का चाव रहा, यश की मंडी में पर मंदा भाव रहा| हमने चाहा हम भी बनें विशिष्ट यहाँ, किन्तु हमेशा व्यर्थ हमारा दाँव रहा| किया काँच को काला सूर्यग्रहण देखा, और धूप भी हमने इसी तरह देखी !
हाथ नहीं जोड़े हमने और नहीं झुके, पाँव किसी की अगवानी में नहीं रुके| इसीलिए जो बैसाखियाँ लिए निकले, वो भी हमको मीलों पीछे छोड़ चुके| वो पहुँचे यश की कच्ची मीनारों पर, स्वाभिमान की हमने सख़्त सतह देखी !
स्वर्गीय भारत भूषण जी मेरे परम प्रिय कवि रहे हैं, कवि सम्मेलनों में उनका कविता पाठ सुनना, वास्तव में वहाँ जाने की क्रिया को सार्थक कर देता था| बहुत भाव-विभोर होकर वे सस्वर काव्य-पाठ करते थे|
आज का भारत भूषण जी का यह गीत दर्शाता है कि किस प्रकार पूरे संयम और मर्यादा के साथ, सार्थक प्रणय गीत लिखा जा सकता है-
आज पहली बात पहली रात साथी|
चाँदनी ओढ़े धरा सोई हुई है, श्याम अलकों में किरण खोई हुई है| प्यार से भीगा प्रकृति का गात साथी, आज पहली बात पहली रात साथी|
मौन सर में कंज की आँखें मुंदी हैं, गोद में प्रिय भृंग हैं बाहें बँधी हैं, दूर है सूरज, सुदूर प्रभात साथी, आज पहली बात पहली रात साथी|
आज तुम भी लाज के बंधन मिटाओ, खुद किसी के हो चलो अपना बनाओ, है यही जीवन, नहीं अपघात साथी| आज पहली बात पहली रात साथी|
स्वर्गीय रमेश रंजक जी मेरे प्रिय कवि रहे हैं, उनका स्नेह भी मिला मुझे और एक विशेषता थी उनमें कि यदि अच्छी रचना उनके शत्रु की भी हो तो उसकी तारीफ़ अवश्य करते थे| कम शब्दों में कैसे बड़ी बात कही जाए, यह उनकी रचनाओं में देखा जा सकता है|
आज मैं रंजक जी का यह नवगीत शेयर कर रहा हूँ-
मेरा बदन हो गया पत्थर का|
‘सोनजुही-से’ हाथ तुम्हारे लकड़ी के हो गये, हारे दिन फीके हो गये, नक्शा बदल गया सारे घर का|
भिड़ने लगे जोर से दरवाज़े, छत, आँगन, दालान सभी लगते आधे-आधे, ख़ारीपन भर गया समुन्दर का|
सिमट गयी हैं कछुए-सी बातें, दिन में दो दिन हुए रात में चार-चार रातें, तेवर बदला अक्षर-अक्षर का|
हिंदी के एक अत्यंत श्रेष्ठ गीतकार थे श्री भारत भूषण जी, मेरठ के रहने वाले थे और काव्य मंचों पर मधुरता बिखेरते थे। मैं यह नहीं कह सकता कि वे सबसे लोकप्रिय थे, परंतु जो लोग कवि-सम्मेलनों में कविता, गीतों के आस्वादन के लिए जाते थे, उनको भारत भूषण जी के गीतों से बहुत सुकून मिलता था।
वैसे भारत भूषण जी ने बहुत से अमर गीत लिखे हैं- ‘चक्की पर गेहूं लिए खड़ा, मैं सोच रहा उखड़ा- उखड़ा, क्यों दो पाटों वाली चाकी, बाबा कबीर को रुला गई’; ‘मैं बनफूल भला मेरा, कैसा खिलना, क्या मुर्झाना’, ‘आधी उमर करके धुआं, ये तो कहो किसके हुए’ आदि-आदि।
आज जो गीत मुझे बरबस याद आ रहा है वह एक ऐसा गीत है, जिसमें वे लोग जो जीवन में मनचाही उपलब्धियां नहीं कर पाते, असफल रहते हैं, वे अपने आप को किस तरह समझाते हैं, बहुत सुंदर उपमाएं दी हैं इस गीत में भारत भूषण जी ने, प्रस्तुत यह गीत-
तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा, धरती के कागज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी।
रेती पर लिखे नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था, मलयानिल के बहकाने पर, बस एक प्रभात निखरना था, गूंगे के मनोभाव जैसे, वाणी स्वीकार न कर पाए, ऐसे ही मेरा हृदय कुसुम, असमर्पित सूख बिखरना था।
जैसे कोई प्यासा मरता, जल के अभाव में विष पी ले, मेरे जीवन में भी ऐसी, कोई मजबूरी रहनी थी। धरती के कागज़ पर मेरी तस्वीर अधूरी रहनी थी॥
इच्छाओं के उगते बिरुवे, सब के सब सफल नहीं होते, हर एक लहर के जूड़े में, अरुणारे कमल नहीं होते, माटी का अंतर नहीं मगर, अंतर रेखाओं का तो है, हर एक दीप के हंसने को, शीशे के महल नहीं होते।
दर्पण में परछाई जैसे, दीखे तो पर अनछुई रहे, सारे सुख वैभव से यूं ही, मेरी भी दूरी रहनी थी। धरती के कागज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी॥
मैंने शायद गत जन्मों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे, चातक का स्वर सुनने वाले, बादल वापस मोड़े होंगे, ऐसा अपराध किया होगा, जिसकी कुछ क्षमा नहीं होती, तितली के पर नोचे होंगे, हिरणों के दृग फोड़े होंगे।
मुझको आजन्म भटकना था, मन में कस्तूरी रहनी थी। धरती के कागज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी।।
इस गीत के साथ मैं उस महान गीतकार का विनम्र स्मरण करता हूँ।
हिन्दी कवि सम्मेलनों के मंचों पर किसी समय हरिवंशराय बच्चन जी का ऐसा नाम था, जिसके लोग दीवाने हुआ करते थे| वह उनकी मधुशाला हो या लोकगीत शैली में लिखा गया उनका गीत- ‘ए री महुआ के नीचे मोती झरें’, ‘अग्निपथ,अग्निपथ,अग्निपथ’ आदि-आदि|
एक बात माननी पड़ेगी मुझे उनको कवि-सम्मेलन में साक्षात सुनने का सौभाग्य नहीं मिला, हाँ एक बार आकाशवाणी में उनका साक्षात्कार हुआ था, जिसके लिए मैं अपने प्रोफेसर एवं कवि-मित्र स्वर्गीय डॉ सुखबीर सिंह जी के साथ उनको, नई दिल्ली में उनके घर से लेकर आया था, और इंटरव्यू के दौरान स्टूडिओ में उनके साथ था|
लीजिए प्रस्तुत है बच्चन जी का यह खूबसूरत गीत-
कोई पार नदी के गाता!
भंग निशा की नीरवता कर, इस देहाती गाने का स्वर, ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता! कोई पार नदी के गाता!
होंगे भाई-बंधु निकट ही, कभी सोचते होंगे यह भी, इस तट पर भी बैठा कोई उसकी तानों से सुख पाता! कोई पार नदी के गाता!
आज न जाने क्यों होता मन सुनकर यह एकाकी गायन, सदा इसे मैं सुनता रहता, सदा इसे यह गाता जाता! कोई पार नदी के गाता!
एक समय था जब दिल्ली में रहते हुए कवि सम्मेलनों, कवि गोष्ठियों आदि के माध्यम से अनेक श्रेष्ठ कवियों को सुनने का मौका मिलता है| अब वैसा माहौल नहीं रहा, एक तो ‘कोरोना’ ने भी बहुत कुछ बदल दिया है|
हाँ तो पुराने समय के काव्य-मंचों पर उभरने वाले बहुत से कवि, जिनकी कविताएं मैं शेयर करता रहा हूँ, उनमें से जो नाम मुझे आज याद आ रहा है, वे हैं स्वर्गीय शिशुपाल सिंह निर्धन जी, लीजिए आज उनका एक सुंदर गीत शेयर कर रहा हूँ-
अगर चल सको साथ चलो तुम, लेकिन मुझसे यह मत पूछो, कितने चलकर आए हो तुम, कितनी मंज़िल शेष रह गई?
हम तुम एक डगर के राही आगे-पीछे का अन्तर है, धरती की अर्थी पर सबको मिला कफ़न यह नीलाम्बर है । अगर जल सको साथ जलो तुम, लेकिन मुझसे यह मत पूछो, अभी चिताओं के मेले में कितनी हलचल शेष रह गई ?
मुझे ओस की बूंद समझकर प्यासी किरन रोज़ आती है, फूलों की मुस्कान चमन में फिर भी मुझे रोज़ लाती है । तड़प सको तो साथ तड़प लो, लेकिन मुझसे यह मत पूछो, कितनी धरा भिगोई तुमने कितनी मरुथल शेष रह गई ?
अवनी पर चातक प्यासे हैं अम्बर में चपला प्यासी है, किसकी प्यास बुझाए बादल ये याचक हैं, वह दासी है । बनो तृप्ति बन सको अगर तुम, लेकिन मुझसे यह मत पूछो, कितनी प्यास बुझा लाए हो, कितनी असफल शेष रह गई ?
जीवन एक ग्रंथ है जिसका सही एक अनुवाद नहीं है, तुम्हें बताऊँ कैसे साथी अर्थ मुझे भी याद नहीं है ? बुझा सको तो साथ बुझाओ, लेकिन मुझसे यह मत पूछो, मरघट के घट की वह ज्वाला, कितनी चंचल शेष रह गई ?
घाट-घाट पर घूम रहे हैं भरते अपनी सभी गगरिया, बदल-बदल कर ओढ़ रहे हैं अपनी-अपनी सभी चदरिया । ओढ़ सको तो साथ ओढ़ लो, लेकिन मुझसे यह मत पूछो, कितने दाग़ लगे चादर में, कितनी निर्मल शेष रह गई ?
डॉ कुँवर बेचैन मेरे गुरुजनों में रहे हैं| मैं उस कालेज में विज्ञान के विद्यार्थी के रूप में कुछ समय गया जिसमें वे हिन्दी साहित्य पढ़ाते थे| खैर उनसे परिचय तो बाद में कवि गोष्ठियों के माध्यम से हुआ और बाद में कुछ बार मैंने एक आयोजक की भूमिका निभाते हुए भी उनको कवि के रूप में बुलाया था| जब आते थे, बड़े प्रेम से गले मिलते थे| अब तो मुझे रिटायर हुए भी 10 साल हो गए हैं, अतः अब मिलना नहीं हो पाता|
आज डॉ कुँवर बेचैन जी का एक बेहद खूबसूरत गीत शेयर कर रहा हूँ| हमारे जीवन में जो तरलता, चंचलता के कारण हैं, जब वह रोजगार की तलाश में विदेशों में बस जाते हैं, तब यहाँ उनकी कमी बहुत महसूस की जाती है| लीजिए प्रस्तुत है यह गीत-
लौट आ रे ! ओ प्रवासी जल ! फिर से लौट आ !
रह गया है प्रण मन में रेत, केवल रेत जलता खो गई है हर लहर की मौन लहराती तरलता कह रहा है चीख कर मरुथल फिर से लौट आ रे!
लौट आ रे ! ओ प्रवासी जल ! फिर से लौट आ !
सिंधु सूखे, नदी सूखी झील सूखी, ताल सूखे नाव, ये पतवार सूखे पाल सूखे, जाल सूखे सूखने अब लग गए उत्पल, फिर से लौट आ रे !
हिन्दी के एक प्रतिष्ठित और लोकप्रिय गीतकार हैं स्वर्गीय रमानाथ अवस्थी जी का एक और गीत आज शेयर कर रहा हूँ| अवस्थी जी मन के बहुत सुकोमल भावों को बहुत बारीकी से अभिव्यक्त कराते थे और कवि सम्मेलनों में बहुत लोकप्रिय थे|
जैसा कहते हैं, जीवन का नाम ही चलना है, हम एक जगह नहीं ठहर सकते, बहुत से दायित्व, वचन बद्धताएँ हमें निरंतर पुकारती रहती हैं| लीजिए इसी संदर्भ में इस रचना का आनंद लीजिए-
रोको मत जाने दो जाना है दूर|
वैसे तो जाने को मन ही होता नहीं, लेकिन है कौन यहाँ जो कुछ खोता नहीं तुमसे मिलने का मन तो है मैं क्या करूँ? बोलो तुम कैसे कब तक मैं धीरज धरूँ । मुझसे मत पूछो मैं कितना मज़बूर ।
रोको मत जाने दो जाना है दूर|
अनगिन चिंताओं के साथ खड़ा हूँ यहाँ पूछता नहीं कोई जाऊँगा मैं कहाँ ? तन की क्या बात मन बेहद सैलानी है कर नहीं पाता मन अपनी मनमानी है । दर्द भी सहे हैं होकर के मशहूर|
रोको मत जाने दो जाना है दूर|
अब नहीं कुछ भी पाने को मन करता कभी-कभी जीवन भी मुझको अखरता| साँस का ठिकाना क्या आए न आए यह बात कौन किसे कैसे समझाए| होना है जो भी वह होगा ज़रूर ।