लीजिए आज एक बार फिर में हिन्दी गीत के सिरमौर स्वर्गीय हरिवंशराय बच्चन जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| बच्चन जी की बहुत सी रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय बच्चन जी का यह गीत, जिसमें उन्होंने संध्या डूबने का बड़ा सुंदर चित्र प्रस्तुत किया है –
चल बसी संध्या गगन से!
क्षितिज ने ली साँस गहरी और संध्या की सुनहरी छोड़ दी सारी, अभी तक था जिसे थामे लगन से! चल बसी संध्या गगन से!
हिल उठे तरु-पत्र सहसा, शांति फिर सर्वत्र सहसा छा गई, जैसे प्रकृति ने ली विदा दिन के पवन से! चल बसी संध्या गगन से!
बुलबुलों ने पाटलों से, षट्पदों ने शतदलों से कुछ कहा–यह देख मेरे गिर पड़े आँसू नयन से! चल बसी संध्या गगन से!
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज श्री बालस्वरूप राही जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| हिन्दी गीत और ग़ज़ल लेखन तथा पत्रिकाओं के संपादन में भी राही जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है|
लीजिए आज प्रस्तुत है श्री बालस्वरूप राही जी का यह प्यारा सा गीत –
कटीले शूल भी दुलरा रहे हैं पाँव को मेरे कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं !
हवाओं में न जाने आज क्यों कुछ-कुछ नमी-सी है, डगर की उष्णता में भी न जाने क्यों कमी-सी है, गगन पर बदलियाँ लहरा रही हैं श्याम-आँचल-सी कहीं तुम नयन में सावन छिपाए तो नहीं बैठीं।
अमावस की दुल्हन सोई हुई है अवनि से लगकर, न जाने तारिकाएँ बाट किसकी जोहतीं जग कर, गहन तम है डगर मेरी मगर फिर भी चमकती है, कहीं तुम द्वार पर दीपक जलाए तो नहीं बैठीं !
हुई कुछ बात ऐसी फूल भी फीके पड़ जाते, सितारे भी चमक पर आज तो अपनी न इतराते, बहुत शरमा रहा है बदलियों की ओट में चन्दा कहीं तुम आँख में काजल लगाए तो नहीं बैठीं!
कटीले शूल भी दुलरा रहे हैं पाँव को मेरे, कहीं तुम पंथ सिर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज स्वर्गीय मुकुट बिहारी ‘सरोज’ जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| सरोज जी का भी कविता लिखने और प्रस्तुत करने का अनूठा अंदाज़ था, जिसके लिए वे बहुत सराहे जाते थे|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय मुकुट बिहारी ‘सरोज’ जी का यह गीत –
पंथ, दौलत से न जीता जाएगा नादान !
स्वर्ण-कलशों में भरे मणियाँ हज़ारों देवता भागे। झुक गई, लेकिन,करोड़ों बार दौलत, धूल के आगे।
धूल की, कैसे खरीदेगा अकिंचन आबरू राख में लिपटे पड़े हैं सैकड़ों भगवान।
शीश वे, जिन पर कि मलयानिल डुलाता था विजन। पाँव वे, जिन पर कि नित माथा झुकाता था गगन।
एक कण के राज्य की सीमा न पाए जीत नत पड़े हैं, विश्वविजयी दम्भ के अरमान!
तू अभी, आरम्भ ही करने चला है पुस्तिका का लेख। इसलिए, उस हाथ फैलाए हुए इन्सान को भी देख।
राह दोनों की बराबर है, बराबर चाह हैं नहीं लेकिन बराबर, राह के सामान!
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
स्वर्गीय बलबीर सिंह ‘रंग’ जी का एक गीत आज शेयर कर रहा हूँ| एक समय था जब कवि सम्मेलनों में बलबीर सिंह ‘रंग’ जी की अलग ही पहचान हुआ करती थी|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय बलबीर सिंह ‘रंग’ जी का यह गीत –
हम तो निर्जन के खंडहर हैं। जीवन का साथी सूनापन, उदासीनता का आराधन; प्रिय के अधरों से चिर-बंचित वंशी के मर्माहत स्वर हैं। हम तो…
इच्छाओं के बूढ़े विषधर, हमें समझते हैं अपना घर; जन्म-मरण के हाथों निर्मित चल-चित्रों के मध्यांतर हैं। हम तो…
नभ-चुम्बी प्रासाद रहें ये, आजीवन आबाद रहें ये; हम जो कुछ हैं, जैसे भी हैं, जो भीतर हैं, सो बाहर हैं। हम तो…
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज मैं छायावाद युग की प्रमुख कवियित्री और देखा जाए तो हिन्दी साहित्य की सबसे बड़ी महिला कवियित्री स्वर्गीय महादेवी वर्मा जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| महादेवी वर्मा जी के गीतों में करुणा और संवेदनाओं के अनेक स्तरों का हम अनुभव कर सकते हैं|
लीजिए, आज प्रस्तुत है स्वर्गीय महादेवी वर्मा जी का यह गीत –
बाँच ली मैंने व्यथा की बिन लिखी पाती नयन में !
मिट गए पदचिह्न जिन पर हार छालों ने लिखी थी, खो गए संकल्प जिन पर राख सपनों की बिछी थी, आज जिस आलोक ने सबको मुखर चित्रित किया है, जल उठा वह कौन-सा दीपक बिना बाती नयन में !
कौन पन्थी खो गया अपनी स्वयं परछाइयों में, कौन डूबा है स्वयं कल्पित पराजय खाइयों में, लोक जय-रथ की इसे तुम हार जीवन की न मानो कौंध कर यह सुधि किसी की आज कह जाती नयन में।
सिन्धु जिस को माँगता है आज बड़वानल बनाने, मेघ जिस को माँगता आलोक प्राणों में जलाने, यह तिमिर का ज्वार भी जिसको डुबा पाता नहीं है, रख गया है कौन जल में ज्वाल की थाती नयन में ?
अब नहीं दिन की प्रतीक्षा है, न माँगा है उजाला, श्वास ही जब लिख रही चिनगारियों की वर्णमाला ! अश्रु की लघु बूँद में अवतार शतशत सूर्य के हैं, आ दबे पैरों उषाएँ लौट अब जातीं नयन में ! बाँच ली मैंने व्यथा की अनलिखी पाती नयन में !
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से अपने लिए गुरू तुल्य रहे स्वर्गीय डॉ कुँवर बेचैन जी को याद कर रहा हूँ | उनकी मृत्यु का दुखद समाचार मिलने पर पहली बार ये ब्लॉग पोस्ट मैंने उनको श्रद्धांजलि स्वरूप, उनकी दो रचनाएँ पुनः प्रस्तुत करते हुए लिखी थी|
डॉ कुँवर बेचैन जी मेरे अग्रजों में रहे हैं, उनके दो गीत आज शेयर कर रहा हूँ| बेचैन जी उस महानन्द मिशन कॉलेज, गाजियाबाद में प्रोफेसर रहे हैं जहां मैंने कुछ समय अध्ययन किया, यद्यपि मेरे विषय अलग थे| दिल्ली में रहते हुए गोष्ठियों आदि में उनको सुनने का अवसर मिल जाता था, बाद में जब मैं अपनी नियोजक संस्था के लिए आयोजन करता तब उनको वहाँ आमंत्रित करने का अवसर भी मिला|
बेचैन जी कविता के लिए समर्पित व्यक्ति थे और एक से एक मधुर और प्रभावशाली गीत उन्होंने लिखे हैं| यह रचनाएँ भी अपने आप में अलग तरह की हैं|
लीजिए प्रस्तुत है डॉक्टर बेचैन जी की यह रचना –
प्यासे होंठों से जब कोई झील न बोली बाबू जी, हमने अपने ही आँसू से आँख भिगो ली बाबू जी|
भोर नहीं काला सपना था पलकों के दरवाज़े पर, हमने यों ही डर के मारे आँख न खोली बाबू जी|
दिल के अंदर ज़ख्म बहुत हैं इनका भी उपचार करो, जिसने हम पर तीर चलाए मारो गोली बाबू जी|
हम पर कोई वार न करना हैं कहार हम शब्द नहीं, अपने ही कंधों पर है कविता की डोली बाबू जी|
यह मत पूछो हमको क्या-क्या दुनिया ने त्यौहार दिए, मिली हमें अंधी दीवाली, गूँगी होली बाबू जी|
सुबह सवेरे जिन हाथों को मेहनत के घर भेजा था, वही शाम को लेकर लौटे खाली झोली बाबू जी|
एक और गीत, जो बिलकुल अलग तरह का है-
नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।।
मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया; लहर होते हुए भी तो मेरा मन न लहराया; मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर; छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।।
मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका; कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका; मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई; मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।।
पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल; नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल; नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना; लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ।|
एक बार फिर से मैं इस सुरीले कवि और महान इंसानकी स्मृतियों को मैं नमन करता हूँ|
आज एक बार फिर मैं हिन्दी के श्रेष्ठ गीतकार और कवि सम्मेलनों के बहुत अच्छे संचालक श्री सोम ठाकुर जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| यह मेरा सौभाग्य है कि सोम जी को कई बार अपने कवि सम्मेलनों में आमंत्रित करने और उनका काव्य पाठ सुनने का अवसर मुझे मिला था| लीजिए, आज प्रस्तुत है श्री सोम ठाकुर जी का यह गीत –
तुम रहे हो द्वीप जैसे, मैं किनारे सा रहा, पर हमारे बीच में है सिंधु लहराता हुआ|
शीश काटे शब्द रहते हैं तुम्हारे होंठ पर लाख चेहरे है मगर मेरी अकेली बात के दिन सुनहले है तुम्हारे स्वप्न तक उड़ते हुए पंख है नोंचे हुए मेरी अंधेरी रात के सिर्फ़ मेरी बात में शाकुंतलों की गंध है तुम रहे खामोश, मैं हर बात दोहराता हुआ|
छेड़कर एकांत मेरा शक्ल कैसी ले रही है लाल -पीली सब्ज़ यादों से तराशी कतरने ला रही कैसी घुटन का ज्वार ये पुरवाइयाँ तेज़ खट्टापन लिए हैं दोपहर की फिसलनें भीगता हूँ गर्म तेजाबी लहर में दृष्टि तक वक्त गलता है तपी बौछार छहराता हुआ|
शोर कैसा है, न जिसको नाम मैं दे पा रहा है अजब आकाश, ऋतुए हो गई हैं अनमनी झनझनाती है ज़ेह्न मेरा लपकती बिजलियाँ एक आँचल है मगर, बाँधे हुए संजीवनी थरथराती भूमि है पावो-तले, पर शीश पर टूटता आकाश है घनघोर घहराता हुआ|
चाँदनी तुमने सुला दी विस्मरण की गोद में बात हम कैसे रूपहली यादगारों की करें एक दहशत खोजती रहती मुझे आठों प्रहर किस लहकते रंग से गमगीन रांगोली भरे तुम रहे हर एक सिहरन को विदा करते हुए मैं दबे तूफान अपने पास ठहराता हुआ|
मैं न पढ़ पाया कभी सायं नियम की संहिता मैं जिया कमज़ोरियों से आसुओं से, प्यार से साथ मेरे चल रहा है काल का बहरा बधिक चीरता है जो मुझे हर क्षण अदेखी धार से देवता बनकर रहे तुम वेदना से बेख़बर मैं लिए हूँ घाव पर हर घाव घहराता हुआ|
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज एक बार फिर मैं हिन्दी काव्य मंचों पर ‘गीतों के राजकुंवर’ नाम से विख्यात हुए स्वर्गीय गोपालदास नीरज जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ, नीरज जी ने हिन्दी गीत साहित्य और भारतीय फिल्म संगीत के लिए भी अपनी रचनाओं के माध्यम से अमूल्य योगदान किया था|
लीजिए, आज प्रस्तुत है स्वर्गीय गोपालदास नीरज जी का यह गीत –
हर दर्पन तेरा दर्पन है, हर चितवन तेरी चितवन है, मैं किसी नयन का नीर बनूँ, तुझको ही अर्घ्य चढ़ाता हूँ !
नभ की बिंदिया चन्दावाली, भू की अंगिया फूलोंवाली, सावन की ऋतु झूलोंवाली, फागुन की ऋतु भूलोंवाली, कजरारी पलकें शरमीली, निंदियारी अलकें उरझीली, गीतोंवाली गोरी ऊषा, सुधियोंवाली संध्या काली, हर चूनर तेरी चूनर है, हर चादर तेरी चादर है, मैं कोई घूँघट छुऊँ, तुझे ही बेपरदा कर आता हूँ ! हर दर्पन तेरा दर्पन है !!
यह कलियों की आनाकानी, यह अलियों की छीनाछोरी, यह बादल की बूँदाबाँदी, यह बिजली की चोराचारी, यह काजल का जादू-टोना, यह पायल का शादी-गौना, यह कोयल की कानाफूँसी, यह मैना की सीनाज़ोरी, हर क्रीड़ा तेरी क्रीड़ा है, हर पीड़ा तेरी पीड़ा है, मैं कोई खेलूँ खेल, दाँव तेरे ही साथ लगाता हूँ ! हर दर्पन तेरा दर्पन है !!
तपसिन कुटियाँ, बैरिन बगियाँ, निर्धन खंडहर, धनवान महल, शौकीन सड़क, गमग़ीन गली, टेढ़े-मेढ़े गढ़, गेह सरल, रोते दर, हँसती दीवारें नीची छत, ऊँची मीनारें, मरघट की बूढ़ी नीरवता, मेलों की क्वाँरी चहल-पहल, हर देहरी तेरी देहरी है, हर खिड़की तेरी खिड़की है, मैं किसी भवन को नमन करूँ, तुझको ही शीश झुकाता हूँ ! हर दर्पन तेरा दर्पन है !!
पानी का स्वर रिमझिम-रिमझिम, माटी का रव रुनझुन-रुनझुन, बातून जनम की कुनुनमुनुन, खामोश मरण की गुपुनचुपुन, नटखट बचपन की चलाचली, लाचार बुढ़ापे की थमथम, दुख का तीखा-तीखा क्रन्दन, सुख का मीठा-मीठा गुंजन, हर वाणी तेरी वाणी है, हर वीणा तेरी वीणा है, मैं कोई छेड़ूँ तान, तुझे ही बस आवाज़ लगाता हूँ ! हर दर्पन तेरा दर्पन है !!
काले तन या गोरे तन की, मैले मन या उजले मन की, चाँदी-सोने या चन्दन की, औगुन-गुन की या निर्गुन की, पावन हो या कि अपावन हो, भावन हो या कि अभावन हो, पूरब की हो या पश्चिम की, उत्तर की हो या दक्खिन की, हर मूरत तेरी मूरत है, हर सूरत तेरी सूरत है, मैं चाहे जिसकी माँग भरूँ, तेरा ही ब्याह रचाता हूँ ! हर दर्पन तेरा दर्पन है!!
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज एक बार फिर मैं हिन्दी काव्य मंचों पर हिन्दी गीत को एक नई पहचान देने वाले, गीत विधा के शिखर पुरुष स्वर्गीय हरिवंशराय बच्चन जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ, बच्चन जी के बहुत से गीत मैंने पहले भी शेयर किए हैं और वे किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं|
लीजिए, आज प्रस्तुत है स्वर्गीय हरिवंशराय बच्चन जी का यह गीत –
लहर सागर का नहीं श्रृंगार, उसकी विकलता है; अनिल अम्बर का नहीं, खिलवार उसकी विकलता है; विविध रूपों में हुआ साकार, रंगो में सुरंजित, मृत्तिका का यह नहीं संसार, उसकी विकलता है।
गन्ध कलिका का नहीं उद्गार, उसकी विकलता है; फूल मधुवन का नहीं गलहार, उसकी विकलता है; कोकिला का कौन-सा व्यवहार, ऋतुपति को न भाया? कूक कोयल की नहीं मनुहार, उसकी विकलता है।
गान गायक का नहीं व्यापार, उसकी विकलता है; राग वीणा की नहीं झंकार, उसकी विकलता है; भावनाओं का मधुर आधार सांसो से विनिर्मित, गीत कवि-उर का नहीं उपहार, उसकी विकलता है।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)