
हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या,
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए|
जाँ निसार अख़्तर
आसमान धुनिए के छप्पर सा
हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या,
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए|
जाँ निसार अख़्तर
आज एक बार फिर से मैं, साहित्य के सभी क्षेत्रों में अपने कृतित्व की छाप छोड़ने वाले श्री रामदरश मिश्र जी की एक ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ| श्री मिश्र जी जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है श्री रामदरश मिश्र जी की यह ग़ज़ल –
पानी बरसा धुआँधार फिर बादल आये रे
धन्य धरा का हुआ प्यार, फिर बादल आये रे
धूल चिड़चिड़ी धुली, नहा पत्तियाँ लगीं हँसने
प्रकृति लगी करने सिंगार फिर बादल आये रे
भीगी-भीगी छाँह उड़ रही माँ के आँचल-सी
गला धूप का अहंकार, फिर बादल आये रे
छिपा पत्तियों में पंछी कोई जाने किसको
बुला रहा है बार-बार, फिर बादल आये रे
प्रिया-देश से आने वाली ओ पगली पुरवा
लायी है क्या समाचार, फिर बादल आये रे
जलतरंग बन गयी नदी, उस पर नव-नव तानें
छेड़ रही झुमझुम फुहार फिर बादल आये रे
फूट चली धरती की खुशबू समय थरथराया
लगे काँपने बंद द्वार फिर बादल आये रे
उग आये अंकुर अनंत स्पंदन से भू-तन पर
आँखों में सपने हज़ार फिर बादल आये रे
वन, पर्वत, मैदान सभी गीतों में नहा रहे
आ हम भी छेड़ें मल्हार फिर बादल आये रे
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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मुमकिन हो तो इक ताज़ा ग़ज़ल और भी कह लूँ,
फिर ओढ़ न लें ख़्वाब की चादर तिरी आँखें|
मोहसिन नक़वी
आज मैं, श्रेष्ठ कवि और मंच संचालक श्री शिव ओम अम्बर जी की लिखी एक हिन्दी ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ| कविता अपनी श्रेष्ठता की गवाही स्वयं देती है, वैसे यह रचना भी कविता के क्षेत्र में फैली अराजकता को लेकर है|
लीजिए आज प्रस्तुत है श्री शिव ओम अम्बर जी की यह ग़ज़ल –
दीमकों के नाम हैं वंसीवटों की डालियाँ,
नागफनियों की क़नीजें हैं यहाँ शेफालियाँ।
छोड़कर सर के दुपट्टे को किसी दरगाह में,
आ गई हैं बदचलन बाज़ार में कव्वालियाँ।
गाँठ की पूँजी निछावर विश्व पे कर गीत ने,
भाल अपने हाथ से अपनी लिखीं कंगालियाँ।
पूज्य हैं पठनीय हैं पर आज प्रासंगिक नहीं,
सोरठे सिद्धान्त के आदर्श की अर्धालियाँ।
इस मोहल्ले में महीनों से रही फ़ाक़ाक़शी,
इस मोहल्ले को मल्हारें लग रही हैं गालियाँ।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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श्री रामदरश मिश्र जी ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अपना योगदान किया है| उनकी कुछ कविताएं मैंने पहले भी शेयर की हैं| आज उनकी एक ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ, जो सामान्य ग़ज़लों से काफी लंबी है|
लीजिए आज प्रस्तुत है श्री रामदरश मिश्र जी की यह ग़ज़ल–
आज धरती पर झुका आकाश तो अच्छा लगा
सिर किये ऊँचा खड़ी है घास तो अच्छा लगा
आज फिर लौटा सलामत राम कोई अवध में
हो गया पूरा कड़ा बनवास तो अच्छा लगा
था पढ़ाया मांज कर बरतन घरों में रात-दिन
हो गया बुधिया का बेटा पास तो अच्छा लगा
लोग यों तो रोज़ ही आते रहे, आते रहे
आज लेकिन आप आये पास तो अच्छा लगा
क़त्ल, चोरी, रहज़नी व्यभिचार से दिन थे मुखर
चुप रहा कुछ आज का दिन ख़ास तो अच्छा लगा
ख़ून से लथपथ हवाएँ ख़ौफ-सी उड़ती रहीं
आँसुओं से नम मिली वातास तो अच्छा लगा
है नहीं कुछ और बस इंसान तो इंसान है
है जगा यह आपमें अहसास तो अच्छा लगा
हँसी हँसते हाट की इन मरमरी महलों के बीच
हँस रहा घर-सा कोई आवास तो अच्छा लगा
रात कितनी भी घनी हो सुबह आयेगी ज़रूर
लौट आया आपका विश्वास तो अच्छा लगा
आ गया हूँ बाद मुद्दत के शहर से गाँव में
आज देखा चाँदनी का हास तो अच्छा लगा
दोस्तों की दाद तो मिलती ही रहती है सदा
आज दुश्मन ने कहा–शाबाश तो अच्छा लगा
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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आज मैं अपने समय में हिन्दी के श्रेष्ठ कवि, संपादक और गीतकार रहे तथा काव्य-मंचों की शोभा बढ़ाने वाले स्वर्गीय कन्हैयालाल नंदन जी की दो ग़ज़लें शेयर कर रहा हूँ| नंदन जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय कन्हैयालाल नंदन जी की यह दो ग़ज़लें–
तेरा जहान बड़ा है,तमाम होगी जगह
उसी में थोड़ी जगह मेरी मुकर्रर कर दे
मैं ईंट गारे वाले घर का तलबगार नहीं
तू मेरे नाम मुहब्बत का एक घर कर दे।
मैं ग़म को जी के निकल आया,बच गयीं खुशियाँ
उन्हें जीने का सलीका मेरी नज़र कर दे।
मैं कोई बात तो कह लूँ कभी करीने से
खुदारा! मेरे मुकद्दर में वो हुनर कर दे!
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अपनी महफिल से यूँ न टालो मुझे
मैं तुम्हारा हूँ तुम तो सँभालो मुझे।
जिंदगी! सब तुम्हारे भरम जी लिये
हो सके तो भरम से निकालो मुझे।
मोतियों के सिवा कुछ नहीं पाओगे
जितना जी चाहो उतना खँगालो मुझे।
मैं तो एहसास की एक कंदील हूँ
जब भी चाहो जला लो ,बुझा लो मुझे।
जिस्म तो ख्वाब है,कल को मिट जायेगा,
रूह कहने लगी है,बचा लो मुझे।
फूल बनकर खिलूँगा बिखर जाऊँगा
खुशबुओं की तरह से बसा लो मुझे।
दिल से गहरा न कोई समंदर मिला
देखना हो तो अपना बना लो मुझे।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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अपनी युवावस्था में, जब मैं दिल्ली-शाहदरा में रहता था, नई नई नौकरी शुरू की थी और कविता का शौक भी नया नया था| उस समय जिन कवियों को अक्सर गोष्ठियों आदि में सुनने का मौका मिल जाता था, उनमें शेरजंग गर्ग जी भी शामिल थे| मैंने पहले भी शायद उनकी एक-दो रचनाएं शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय शेरजंग गर्ग जी की यह ग़ज़ल –
ग़लत समय में सही बयानी
सब मानी निकले बेमानी
जिसने बोया, उसने काटा
हुई मियाँ यह बात पुरानी
किसको ज़िम्मेदारी सौंपे
हर सूरत जानी पहचानी
कौन बनाए बिगड़ी बातें
सीख गए सब बात बनानी
कुछ ही मूल्य अमूल्य बचे हैं
कौन करे उनकी निगरानी
आन-मान पर जो न्यौछावर
शख्स कहाँ ऐसे लासानी
जीना ही दुश्वार हुआ है
मरने में कितनी आसानी
विद्वानों के छक्के छूटे
ज्ञान बघार रहे अज्ञानी
जबसे हमने बाज़ी हारी
उनको आई शर्त लगानी
कुर्सी-कुर्सी होड़ लगी है
दफ्तर-दफ्तर खींचा-तानी
जन-मन-गण उत्पीड़ित पीड़ित
जितनी व्यर्थ गई कुरबानी
देश बड़ा हैं, देश रहेगा
सरकारे तो आनी-जानी
हम न सुनेंगे, हम न कहेंगे
कोउ नृप होय,हमै का हानी?
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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कल मैंने अपने अग्रज और गुरु तुल्य स्वर्गीय डॉक्टर कुंअर बेचैन जी का जिक्र किया था, उनके बहुत से गीत और कविताएं मैं पहले शेयर की हैं, जब कविता नई नई रुचि पैदा हुई थी तब हम डॉक्टर कुंअर बेचैन जी को बड़े चाव से सुनते थे और अक्सर कवि गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में इसका अवसर मिलता रहता था|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय डॉक्टर कुंअर बेचैन जी की यह ग़ज़ल –
उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे
उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से
मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे
बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा
धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे
छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर गई
इक गजल शौक से मैंने कभी गाया था जिसे
दे गया घाव वो ऐसे कि जो भरते ही नहीं
अपने सीने से कभी मैंने लगाया था जिसे
होश आया तो हुआ यह कि मेरा इक दुश्मन
याद फिर आने लगा मैंने भुलाया था जिसे
वो बड़ा क्या हुआ सर पर ही चढ़ा जाता है
मैंने काँधे पे `कुँअर’ हँस के बिठाया था जिसे
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ,
मिरा लफ़्ज़ लफ़्ज़ हो आईना तुझे आइने में उतार लूँ|
बशीर बद्र
हाथ आ कर लगा गया कोई,
मेरा छप्पर उठा गया कोई|
कैफ़ी आज़मी