आज एक ऐसे रचनाकार की रचना शेयर कर रहा हूँ, जिनकी कोई रचना शायद मैंने पहले शेयर नहीं की है| श्री राजेन्द्र राजन एक श्रेष्ठ रचनाकार हैं जिन्होंने अनेक श्रेष्ठ कविताएं, गीत और कहानियाँ लिखी हैं|
आज मैं उनकी एक सुंदर रचना शेयर कर रहा हूँ-
मेरे मन में नफ़रत और गुस्से की आग, कुंठाओं के किस्से, और ईर्ष्या का नंगा नाच है|
मेरे मन में अंधी महत्वाकांक्षाएं, और दुष्ट कल्पनाएं हैं|
मेरे मन में बहुत से पाप, और भयानक वासना है|
ईश्वर की कृपा से बस यही एक अच्छी बात है, कि यह सब मेरे सामर्थ्य से परे है|
ब्लॉग लेखन के लिए मैंने तो मुख्यतः कविता, गीत, गजल आदि का सृजनात्मक क्षेत्र चुना है और मैं समझता हूँ कि इस क्षेत्र में ही अभिव्यक्ति के लिए इतना कुछ मिल जाता है कि कुछ और ढूँढने की जरूरत ही नहीं है| हाँ एक जागरूक नागरिक होने के नाते, जब किसी सामयिक राजनैतिक विषय पर अपनी राय रखने का मन होता है तो उसमें भी मैं हिचकता नहीं हूँ|
वैसे राजनैतिक विषय पर लिखने वालों में आजकल ऐसे लोग ज्यादा सक्रिय हैं जिन्हें ‘अवार्ड वापसी गैंग’, ‘खान मार्केट गैंग’ या ‘लुटियन्स मीडिया’ नाम से भी जाना जाता है|
इन महानुभावों के बारे में बात करने से पहले एक छोटा सा प्रसंग याद आ रहा है| कहा जाता है कि एक बार कुछ विद्वान सज्जनों को यह मालूम हुआ कि ऐसी हवा चलने वाली है कि वो जिसको भी लगेगी, वह पागल हो जाएगा| उन विद्वानों ने यह फैसला किया कि हम एक कमरे में बंद हो जाएंगे, और वह हवा समाप्त हो जाने के बाद हम बाकी लोगों को समझा देंगे कि आप लोगों पर पागल करने वाली हवा का असर है और धीरे-धीरे उनको ठीक कर लेंगे| लेकिन असल में हुआ यह कि जो लोग खुली हवा में रहे, उन्होंने इन विद्वान लोगों को ही पागल घोषित कर दिया!
अपने यहाँ के इन विद्वानों की भी यही स्थिति है| उनको ऐसा भी लगता है कि देश के लिए क्या ठीक है, यह सिर्फ उनको ही मालूम है और देश की जनता उनके विचार में बेवकूफ है, जो जानती ही नहीं कि क्या ठीक है और क्या गलत!
अपने यहाँ के इन विद्वानों की भी यही स्थिति है| जैसे उदाहरण के लिए आदरणीय रवीश जी, विनोद दुआ जी, राजदीप सरदेसाई आदि-आदि विद्वानों को देखें, इन के पास लिखने अथवा बोलने का क्रॉफ्ट बढ़िया है| किसी जमाने में मैं रवीश जी, विनोद दुआ जी आदि का फैन भी रहा हूँ, लेकिन समय के साथ-साथ इनका दिमाग ज्यादा से ज्यादा बंद होता गया| स्थिति ऐसी होती गई कि जो सकारात्मक उपलब्धियां हिंदुस्तान में और विदेश में भी लोगों को दिखाई देती हैं, वे उनको दिखाई नहीं दे पातीं, चिड़िया की आँख की तरह उनको सिर्फ बुराई ही दिखाई देती है और वही उनका धर्म बन गया लगता है|
मुझे कुछ ऐसा ही लगता है, जैसे खिलाड़ी नेट-प्रेक्टिस करते हैं, फिट रहने के लिए एक्सरसाइज़ करते हैं, ये लेखक-पत्रकार बंधु अपने लेखन को धार देने के लिए कहें या जीवित बनाए रखने के लिए भी, नफरत का अभ्यास करते हैं| जैसे हम मानते हैं कि किसी जमाने में तुलसीदास जी जैसे कवियों के लिए उनकी आस्था ही उनकी बड़ी शक्ति थी| कवियों के लिए उनके दिल में भरा प्रेम उनके सृजन की शक्ति होता है, आज के इन स्वनामधन्य लेखकों के लिए नफरत ही शक्ति है, ऊर्जा का स्रोत है जो उनको चार्ज करता है|
आज इस बहाने मुझे अपनी एक कविता याद आ गई, जिसे पहले भी मैंने शेयर किया होगा, आज फिर शेयर कर लेता हूँ| ये कविता अपने कविता लेखन के शुरू के दिनों में लिखी थी, जब मैंने देखा कि मेरे साथी जो अभी कविता लिखना शुरू ही कर रहे हैं, वे स्थापित कवियों की रचनाओं के बारे में कभी-कभी काफी अभद्र और अगंभीर टिप्पणियाँ कर देते थे|
लीजिए प्रस्तुत है मेरी यह पुरानी कविता-
शब्दों के पिरामिड सजाओगे पढ़कर तुम बासी अखबार, पर इससे होगा क्या यार|
घिसी हुई रूढ़ स्थापनाओं को, मंत्रों सी जब-तब दोहराओगे, कविता की बात खुद चलाकर तुम, कविता की राजनीति गाओगे|
उगलोगे जितना पढ़ डाला है, ले भी लेते जरा डकार, यूं होना भी क्या है यार|
गंधों के मकबरे गिनाना फिर, एक गंध अपनी तो बो लो तुम, प्रवचन की मुद्रा फिर धारणा, पहले सचमुच कुछ जी तो लो तुम|
अंतर के स्पंदन में ढूंढोगे केवल रस-छंद अलंकार| पर इससे होगा क्या यार|
प्रतिभा है तुममें माना मैंने हर दिन कविता को वर लोगे तुम, अड़ जाओगे जिस भी झूठ पर उसको सच साबित कर लोगे तुम|
मंचों से रात-दिन उंडेलोगे उथले मस्तिष्क के विकार| पर इससे होगा क्या यार|