प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य कवि श्री अशोक चक्रधर जी की एक कविता आज शेयर कर रहा हूँ| मेरा खयाल है कि अशोक चक्रधर जी से तो आप सभी परिचित होंगे| इस कविता में भी एक प्रकार की हड़ताल ही है जिसे मनुष्य नहीं भवन निर्माण जैसे कार्यों में प्रयुक्त होने वाले यंत्र और सामग्री कर रहे हैं, एक और बात यह कि अशोक जी शायद इन यंत्रों से अधिक परिचित हैं, क्योंकि एक-दो यंत्रों को तो मैं नहीं पहचान पाया|
लीजिए प्रस्तुत है अशोक चक्रधर जी की यह व्यंग्य कविता–
फावड़े ने मिट्टी काटने से इंकार कर दिया और बदरपुर पर जा बैठा एक ओर
ऐसे में तसले को मिट्टी ढोना कैसे गवारा होता ? काम छोड़ आ गया फावड़े की बगल में। धुरमुट की क़दमताल…..रुक गई, कुदाल के इशारे पर तत्काल,
झाल ज्यों ही कुढ़ती हुई रोती बड़बड़ाती हुई आ गिरी औंधे मुंह रोड़ी के ऊपर।
-आख़िर ये कब तक ? -कब तक सहेंगे हम ? गुस्से में ऐंठी हुई काम छोड़ बैठ गईं गुनिया और वसूली भी ईंटों से पीठ टेक, सिमट आया नापासूत कन्नी के बराबर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ? गारे में गिरी हुई बाल्टी तो वहीं-की-वहीं खड़ी रह गई ठगी-सी।
सब्बल जो बालू में धंसी हुई खड़ी थी कई बार ज़ालिम ठेकेदार से लड़ी थी।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
-मामला ये अकेले झाल का नहीं है धुरमुट चाचा ! कुदाल का भी है कन्नी का, वसूली का, गुनिया का, सब्बल का और नापासूत का भी है, क्यों धुरमुट चाचा ? फावड़े ने ज़रा जोश में कहा।
और ठेक पड़ी हथेलियां कसने लगीं-कसने लगीं कसती गईं-कसती गईं।
एक साथ उठी आसमान में आसमान गूंज गया कांप उठा डरकर।
ठेकेदार भाग लिया टेलीफ़ोन करने।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की एक लंबी कविता, देश की राजधानी दिल्ली के बारे में, देश की राजनीति और सामाजिक जीवन, समृद्धि, संस्कृति आदि विभिन्न पक्षों के संबंध में दिनकर जी ने विस्तार से इस कविता में अपने भाव व्यक्त किए हैं|
लीजिए प्रस्तुत है यह विशिष्ट कविता–
दिल्ली फूलों में बसी, ओस-कण से भीगी, दिल्ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है, प्रेमिका-कंठ में पड़ी मालती की माला, दिल्ली सपनों की सेज मधुर रस-भीनी है।
बस, जिधर उठाओ दृष्टि, उधर रेशम केवल, रेशम पर से क्षण भर को आंख न हटती है, सच कहा एक भाई ने, दिल्ली में तन पर रेशम से रुखड़ी चीज न कोई सटती है।
हो भी क्यों नहीं? कि दिल्ली के भीतर जाने, युग से कितनी सिदि्धयां समायी हैं। औ` सबका पहुंचा काल तभी जब से उन की आंखें रेशम पर बहुत अधिक ललचायी हैं।
रेशम से कोमल तार, क्लांतियों के धागे, हैं बंधे उन्हीं से अंग यहां आजादी के, दिल्ली वाले गा रहे बैठ निश्चिंत मगन रेशमी महल में गीत खुरदुरी खादी के।
वेतनभोगिनी, विलासमयी यह देवपुरी, ऊंघती कल्पनाओं से जिस का नाता है, जिसको इसकी चिन्ता का भी अवकाश नहीं, खाते हैं जो वह अन्न कौन उपजाता है।
उद्यानों का यह नगर कहीं भी जा देखो, इसमें कुम्हार का चाक न कोई चलता है, मजदूर मिलें पर, मिलता कहीं किसान नहीं, फूलते फूल, पर, मक्का कहीं न फलता है।
क्या ताना है मोहक वितान मायापुर का, बस, फूल-फूल, रेशम-रेशम फैलाया है, लगता है, कोई स्वर्ग खमंडल से उड़कर, मदिरा में माता हुआ भूमि पर आया है।
ये, जो फूलों के चीरों में चमचमा रहीं, मधुमुखी इन्द्रजाया की सहचरियां होंगी, ये, जो यौवन की धूम मचाये फिरती हैं, भूतल पर भटकी हुई इन्द्रपरियां होंगी।
उभरे गुलाब से घटकर कोई फूल नहीं, नीचे कोई सौंदर्य न कसी जवानी से, दिल्ली की सुषमाओं का कौन बखान करे? कम नहीं कड़ी कोई भी स्वप्न कहानी से।
गंदगी, गरीबी, मैलेपन को दूर रखो, शुद्धोदन के पहरेवाले चिल्लाते हैं, है कपिलवस्तु पर फूलों का शृंगार पड़ा, रथ-समारूढ़ सिद्धार्थ घूमने जाते हैं।
सिद्धार्थ देख रम्यता रोज ही फिर आते, मन में कुत्सा का भाव नहीं, पर, जगता है, समझाये उनको कौन, नहीं भारत वैसा दिल्ली के दर्पण में जैसा वह लगता है।
भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला, भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में। दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में।
रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखनेवालों, तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो? बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में, तुम भी क्या घर भर पेट बांधकर सोये हो?
असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में, कया जल मे बह जाते देखा है? क्या खाएंगे? यह सोच निराशा से पागल, बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?
देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को, जिन की आभा पर धूल अभी तक छायी है? रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक रेशम क्या? साड़ी सही नहीं चढ़ पायी है।
पर तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले, क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे? जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?
चिन्ता हो भी क्यों तुम्हें, गांव के जलने से, दिल्ली में तो रोटियां नहीं कम होती हैं। धुलता न अश्रु-बुंदों से आंखों से काजल, गालों पर की धूलियां नहीं नम होती हैं।
जलते हैं तो ये गांव देश के जला करें, आराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी? या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल, या आंधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी।
चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर, दिल्ली, लेकिन, ले रही लहर पुरवाई में। है विकल देश सारा अभाव के तापों से, दिल्ली सुख से सोयी है नरम रजाई में।
क्या कुटिल व्यंग्य! दीनता वेदना से अधीर, आशा से जिनका नाम रात-दिन जपती है, दिल्ली के वे देवता रोज कहते जाते, `कुछ और धरो धीरज, किस्मत अब छपती है।´
किस्मतें रोज छप रहीं, मगर जलधार कहां? प्यासी हरियाली सूख रही है खेतों में, निर्धन का धन पी रहे लोभ के प्रेत छिपे, पानी विलीन होता जाता है रेतों में।
हिल रहा देश कुत्सा के जिन आघातों से, वे नाद तुम्हें ही नहीं सुनाई पड़ते हैं? निर्माणों के प्रहरियों! तुम्हें ही चोरों के काले चेहरे क्या नहीं दिखाई पड़ते हैं?
तो होश करो, दिल्ली के देवो, होश करो, सब दिन तो यह मोहिनी न चलनेवाली है, होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसें, मिट्टी फिर कोई आग उगलनेवाली है।
हों रहीं खड़ी सेनाएं फिर काली-काली मेंघों-से उभरे हुए नये गजराजों की, फिर नये गरुड़ उड़ने को पांखें तोल रहे, फिर झपट झेलनी होगी नूतन बाजों की।
वृद्धता भले बंध रहे रेशमी धागों से, साबित इनको, पर, नहीं जवानी छोड़ेगी, सिके आगे झुक गये सिद्धियों के स्वामी, उस जादू को कुछ नयी आंधियां तोड़ेंगी।
ऐसा टूटेगा मोह, एक दिन के भीतर, इस राग-रंग की पूरी बर्बादी होगी, जब तक न देश के घर-घर में रेशम होगा, तब तक दिल्ली के भी तन पर खादी होगी।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
स्वर्गीय किशन सरोज जी मेरे अत्यंत प्रिय गीतकार थे, मैंने पहले भी उनके बहुत से गीत शेयर किए हैं, उनसे जो स्नेह मुझे प्राप्त करने को सौभाग्य मिला उसका उल्लेख भी मैंने किया है|
अधिकतर मैंने किशन जी के वे गीत शेयर किए हैं जो मंचों पर वे पढ़ते थे| लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय किशन सरोज जी का एक नवगीत, जिसमें सावन ऋतु का वर्णन करते हुए बताया गया है कि किस प्रकार विरहिन के मामले में सावन और जेठ एक साथ अपना प्रभाव दिखाते हैं–
महक उठे गांव-गांव ले पुबांव से पछांव बहक उठे आज द्वार, देहरी अँगनवा।
बगियन के भाग जगे झूम उठी अमराई बौराए बिरवा फिर डोल उठी पुरवाई उतराए कूल-कूल बन-बन मुरिला बोले, गेह में सुअनवा।
घिर आए बदरा फिर संग लगी बीजुरिया कजराई रातें फिर बाज उठी बांसुरिया अन्धियरिया फैल-फैल गहराये गैल-गैल छिन- छिन पै काँप उठत, पौरि में दियनवा।
प्रान दहे सुधि पापिन गली-गली है सूनी पाहुना बिदेस गए पीर और कर दूनी लहराए हार-हार मन हिरके बार-बार जियरा में जेठ तपे, नैन में सवनवा।
(आभार- यहाँ उद्धृत करने के लिए कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध – ‘कविता कोश‘ तथा ‘Rekhta‘ से लेता हूँ)
लीजिए आज एक बार फिर से स्वर्गीय रामावतार त्यागी जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| रामावतार त्यागी जी की कविताओं में खुद्दारी और आत्मविश्वास विशेष रूप से झलकते थे| उनकी एक पंक्ति जिसे अक्सर उद्धृत किया जाता है, वह है- ‘हमें हस्ताक्षर करना न आया चेक पर माना, मगर दिल पर बड़ी कारीगरी से नाम लिखते हैं’|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय रामावतार त्यागी जी की यह कविता –
भूमि के विस्तार में बेशक कमी आई नहीं है आदमी का आजकल आकाश छोटा हो गया है ।
हो गए सम्बन्ध सीमित डाक से आए ख़तों तक और सीमाएँ सिकुड़कर आ गईं घर की छतों तक प्यार करने का तरीका तो वही युग–युग पुराना आज लेकिन व्यक्ति का विश्वास छोटा हो गया है ।
आदमी की शोर से आवाज़ नापी जा रही है घण्टियों से वक़्त की परवाज़ नापी जा रही है देश के भूगोल में कोई बदल आया नहीं है हाँ, हृदय का आजकल इतिहास छोटा हो गया है ।
यह मुझे समझा दिया है उस महाजन की बही ने साल में होते नहीं हैं आजकल बारह महीने और ऋतुओं के समय में बाल भर अन्तर न आया पर न जाने किस तरह मधुमास छोटा हो गया है ।
आज स्वर्गीय रघुवीर सहाय जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| रघुवीर सहाय जी ने अज्ञेय जी के बाद प्रतिष्ठित साप्ताहिक समाचार पत्रिका ‘दिनमान’ के संपादन का गुरुतर दायित्व संभाला था और लंबे समय तक उस पत्रिका का श्रेष्ठ संपादन किया था| श्री रघुवीर सहाय जी उन कवियों में से एक थे जो कविता में अधिक शब्द न भरते हुए गहरी बात कहने का प्रयास करते थे| लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय रघुवीर सहाय जी की यह कविता –
तोड़ो तोड़ो तोड़ो ये पत्थर ये चट्टानें ये झूठे बंधन टूटें तो धरती का हम जानें सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब है अपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब है आधे आधे गाने
तोड़ो तोड़ो तोड़ो ये ऊसर बंजर तोड़ो ये चरती परती तोड़ो सब खेत बनाकर छोड़ो मिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को हम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की खीज को? गोड़ो गोड़ो गोड़ो
आज एक बार फिर मैं स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| जैसे ईश्वर हर जगह पहुँचने के लिए स्वतंत्र होते हैं उसी प्रकार कवि की स्वतंत्रता भी अनंत है| अब इस कविता में ही देखी सर्वेश्वर जी ने ईश्वर को कौन सी ड्रेस पहना दी और उससे क्या काम करवा लिया| एक अलग अंदाज़ में सर्वेश्वर जी ने इस कविता में अपनी बात काही है लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की यह कविता –
बहुत बडी जेबों वाला कोट पहने ईश्वर मेरे पास आया था, मेरी मां, मेरे पिता, मेरे बच्चे और मेरी पत्नी को खिलौनों की तरह, जेब में डालकर चला गया और कहा गया, बहुत बडी दुनिया है तुम्हारे मन बहलाने के लिए।
मैंने सुना है, उसने कहीं खोल रक्खी है खिलौनों की दुकान, अभागे के पास कितनी जरा-सी पूंजी है रोजगार चलाने के लिए।
श्री ओम प्रभाकर जी हिन्दी के एक प्रमुख नवगीतकार हैं| उनका एक नवगीत मुझे बहुत पसंद है- ‘यात्रा के बाद भी पथ साथ रहते हैं’| आज मैं श्री ओम प्रभाकर जी का एक और सुंदर नवगीत शेयर कर रहा हूँ, जिसमें आज की विसंगतियों को उन्होंने एक अलग अन्दाज़ में प्रस्तुत किया है| लीजिए आज प्रस्तुत है श्री ओम प्रभाकर जी का यह नवगीत –
बीत गए दिन फूल खिलने के।
होती हैं केवल वनस्पतियाँ हरी-हरी-सी हर गली हर मोड़ पर बैठी मौत अपनी बाँह फैलाकर। बर्फ़-सा जमता हुआ हर शख़्स चुप्पियों में क़ैद हैं साँसें, समय की नंगी सलीबों पर गले में अटकी हुईं फाँसें, लिख रहे हैं लोग कविताएँ नींद की ज्यों गोलियाँ खाकर। बीत गए दिन अब हवाओं में गन्धकेतु हिलने के फूल खिलने के।
ढोती हैं काले पहाड़ दृष्टियाँ सूर्य झर गए, दृश्य घाटी में गहरे उतर गए, बीत गए दिन उठी बाँहों से बाँहों के मिलने के फूल खिलने के।
एक बार फिर से आज मैं श्री सोम ठाकुर जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ, सोम ठाकुर जी के बहुत से गीत मैंने पहले भी शेयर किए हैं| मूलतः वे प्रेम के गीतकार हैं और उनके प्रेम का दायरा इतना बड़ा है कि उसमें राष्ट्र प्रेम, भाषा प्रेम सभी शामिल हो जाते हैं और उन्होंने हर क्षेत्र में कुछ अमर गीत दिए हैं| लीजिए आज प्रस्तुत है सोम ठाकुर जी का यह रूमानी गीत, जिसका निर्वाह सोम जी ने बहुत सुंदर तरीके से किया है-
इस निरभ्रा चाँदनी में आज फिर गुँथ जाए तेरी छाँह, मेरी छाँह|
नयन – कोरों पर, लटों के मुक्त छोरों पर टूटती हैं नीम से छनती किरण रुक गया हो रूप निर्झर पर, कि जैसे अमरता का क्षण, एक तरल उष्णता है — जो कि राग — रागनाप ठंडे बदनो को खोलती हैं वारुणी –संज्ञावती हैं, आत्म –प्लावक मानसर में आज फिर बुझ जाए तेरा दाह, मेरा दाह ।
जो कछारों में न बोला नमस्कारों में अर्थ वह इस प्राण का चंदन, महकता है, पर नही करता किसी अभिव्यक्ति का पूजन, आत्मजा हर लहर मन की कुछ अनाम ऊर्जामय लय तरंगों में थकूँ मैं, स्रष्टि को दोहरा सकू मैं, शब्द गर्वित जो नही वह आज फिर चुक जाए तेरी चाह में, मेरी चाह ।
दूर के वन में दिशाओं के समापन में काँपता है एक सूनापन, हर प्रहार स्वीकारता जाता द्रगों में डूबने का प्रन यह विमुक्ता देह मेरी , दो मुझे तुम रूप–क्षण का स्पर्श, चेतन तक गलूँ मैं और अनुक्षण जन्म लूँ मैं,
ओ निमग्ने ! एक मंगल–विलय तक मुड़ जाए, तेरी राह, मेरी राह।
लीजिए आज एक बार फिर से मैं हिन्दी काव्य जगत में गीतों के राजकुंवर के नाम से विख्यात स्वर्गीय गोपाल दास जी ‘नीरज’ का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| नीरज जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, हिन्दी काव्य साहित्य और हिन्दी फिल्मों में भी उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से अमूल्य योगदान किया है| मैंने पहले भी नीरज जी के अनेक गीत शेयर की हैं और आशा है कि आगे भी करता रहूँगा|
लीजिए आज प्रस्तुत है नीरज जी का यह गीत-
प्यार अगर थामता न पथ में उँगली इस बीमार उमर की हर पीड़ा वैश्या बन जाती, हर आँसू आवारा होता।
निरवंशी रहता उजियाला गोद न भरती किसी किरन की, और ज़िन्दगी लगती जैसे- डोली कोई बिना दुल्हन की, दुख से सब बस्ती कराहती, लपटों में हर फूल झुलसता करुणा ने जाकर नफ़रत का आँगन गर न बुहारा होता। प्यार अगर…
मन तो मौसम-सा चंचल है सबका होकर भी न किसी का अभी सुबह का, अभी शाम का अभी रुदन का, अभी हँसी का और इसी भौंरे की ग़लती क्षमा न यदि ममता कर देती ईश्वर तक अपराधी होता पूरा खेल दुबारा होता। प्यार अगर…
जीवन क्या है एक बात जो इतनी सिर्फ समझ में आए- कहे इसे वह भी पछताए सुने इसे वह भी पछताए मगर यही अनबूझ पहेली शिशु-सी सरल सहज बन जाती अगर तर्क को छोड़ भावना के सँग किया गुज़ारा होता। प्यार अगर…
मेघदूत रचती न ज़िन्दगी वनवासिन होती हर सीता सुन्दरता कंकड़ी आँख की और व्यर्थ लगती सब गीता पण्डित की आज्ञा ठुकराकर, सकल स्वर्ग पर धूल उड़ाकर अगर आदमी ने न भोग का पूजन-पात्र जुठारा होता। प्यार अगर…
जाने कैसा अजब शहर यह कैसा अजब मुसाफ़िरख़ाना भीतर से लगता पहचाना बाहर से दिखता अनजाना जब भी यहाँ ठहरने आता एक प्रश्न उठता है मन में कैसा होता विश्व कहीं यदि कोई नहीं किवाड़ा होता। प्यार अगर...
हर घर-आँगन रंग मंच है औ’ हर एक साँस कठपुतली प्यार सिर्फ़ वह डोर कि जिस पर नाचे बादल, नाचे बिजली, तुम चाहे विश्वास न लाओ लेकिन मैं तो यही कहूँगा प्यार न होता धरती पर तो सारा जग बंजारा होता। प्यार अगर…
आज एक बार फिर मैं हिन्दी के गीत शिरोमणि स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन जी की एक प्रसिद्ध रचना शेयर कर रहा हूँ| बच्चन जी के इस गीत की मुख्य पंक्ति को अक्सर उद्धृत किया जाता है, इसलिए मुझे लगता है कि इसके संबंध में अधिक बताने की आवश्यकता नहीं है|
लीजिए प्रस्तुत है बच्चन जी का यह प्रसिद्ध गीत–
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का, लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का, कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो, बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का, तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो, उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है, जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है, स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे, मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है! ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे, तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको, इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको, कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा, करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको? कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं, उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये, वे भार दिए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढोए, महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा! उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए! अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके, उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आऐंगी, जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जाएँगी, जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी, तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मनाएगी! जब इस लंबेचौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा, तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कोयल न कुहुक फिर पाएगी, बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगाएगी, अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर ‘भरभर’ न सुने जाएँगे, अलिअवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी, जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जाएगा, तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन, निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’, सरिता अपना ‘कलकल’ गायन, वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा! मुँह खोल खड़े रह जाएँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण! संगीत सजीव हुआ जिनमें, जब मौन वही हो जाएँगे, तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने, वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लताओं के गहने, दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने! जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभाशुषमा लुट जाएगी, तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है, फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है! मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी, दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है। मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से! जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!