आज मैं अपने समय के प्रसिद्ध हिन्दी कवि रहे स्वर्गीय शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| अनेक पुरस्कारों से अलंकृत सुमन जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ जी की यह कविता –
तुम तो यहीं ठहर गये ठहरे तो किले बान्धो मीनारें गढ़ो उतरो चढ़ो उतरो चढ़ो कल तक की दूसरों की आज अपनी रक्षा करो, मुझको तो चलना है अन्धेरे में जलना है समय के साथ-साथ ढलना है इसलिये मैने कभी बान्धे नहीं परकोटे साधी नहीं सरहदें औ’ गढ़ी नहीं मीनारें जीवन भर मुक्त बहा सहा हवा-आग-पानी सा बचपन जवानी सा।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
एक बार फिर से मैं आज हिन्दी के अनूठे कवि स्वर्गीय दुष्यंत कुमार जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| आपातकाल में अपनी विद्रोही ग़ज़लों से उनको बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी| दुष्यंत जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय दुष्यंत कुमार जी की यह कविता –
मैं जो अनवरत तुम्हारा हाथ पकड़े स्त्री-परायण पति सा इस वन की पगडंडियों पर भूलता-भटकता आगे बढ़ता जा रहा हूँ, सो इसलिए नहीं कि मुझे दैवी चमत्कारों पर विश्वास है, या तुम्हारे बिना मैं अपूर्ण हूँ, बल्कि इसलिए कि मैं पुरुष हूँ और तुम चाहे परंपरा से बँधी मेरी पत्नी न हो, पर एक ऐसी शर्त ज़रूर है, जो मुझे संस्कारों से प्राप्त हुई, कि मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता।
पहले जब पहला सपना टूटा था, तब मेरे हाथ की पकड़ तुम्हें ढीली महसूस हुई होगी। सच, वही तुम्हारे बिलगाव का मुकाम हो सकता था। पर उसके बाद तो कुछ टूटने की इतनी आवाज़ें हुईं कि आज तक उन्हें सुनता रहता हूँ। आवाज़ें और कुछ नहीं सुनने देतीं! तुम जो हर घड़ी की साथिन हो, तुमझे झूठ क्या बोलूँ? खुद तुम्हारा स्पंदन अनुभव किए भी मुझे अरसा गुजर गया! लेकिन तुम्हारे हाथों को हाथों में लिए मैं उस समय तक चलूँगा जब तक उँगलियाँ गलकर न गिर जाएँ। तुम फिर भी अपनी हो, वह फिर भी ग़ैर थी जो छूट गई; और उसके सामने कभी मैं यह प्रगट न होने दूँगा कि मेरी उँगलियाँ दग़ाबाज़ हैं, या मेरी पकड़ कमज़ोर है, मैं चाहे कलम पकड़ूँ या कलाई।
मगर ओ मेरी जिंदगी! मुझे यह तो बता तू मुझे क्यों निभा रही है? मेरे साथ चलते हुए क्या तुझे कभी ये अहसास होता है कि तू अकेली नहीं?
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आज फिर से मैं प्रसिद्ध आधुनिक हिन्दी कवि और प्रसिद्ध उच्च अधिकारी रहे श्री अशोक वाजपेयी जी की एक लंबी कविता शेयर कर रहा हूँ| अशोक जी का किसी समय भारत सरकार की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक नीति को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा था| वाजपेयी जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है श्री अशोक वाजपेयी जी की यह कविता –
हम उस मंदिर में जायेंगे जो किसी ने नहीं बनाया शताब्दियों पहले
हम प्रणाम करेंगे उस देवता को जो थोड़ी देर पहले हमारे साथ चाय की दूकान पर अखबार पलट रहा था
हम जंगल के सुनसान को भंग किये बिना झरने के पास बैठकर सुनेगे पक्षियों-पल्लवों-पुष्पों की प्रार्थनाएँ
फिर हम धीरे-धीरे आकाशमार्ग से वापस लौट जायेंगे कि किसी को याद ही न रहे कि हम थे, जंगल था मंदिर और देवता थे प्रणति थी-
कोई नहीं देख पायेगा हमारा न होना जैसे प्रार्थना में डूबी भीड़ से लोप हो गये बच्चों को कोई नहीं देख पाता-
सब कुछ छोड़कर नहीं
हम सब कुछ छोड़कर यहाँ से नहीं जायेंगे
साथ ले जायेंगे जीने की झंझट, घमासान और कचरा सुकुमार स्मृतियाँ, दुष्टताएँ और कभी कम न पड़नेवाले शब्दों का बोझ।
हरियाली और उजास की छबियाँ अप्रत्याशित अनुग्रहों का आभार और जो कुछ भी हुए पाप-पुण्य।
समय-असमय याद आनेवाली कविताएँ बचपन के फूल-पत्तियों भरे हरे सपने अधेड़ लालसाएँ भीड़ में पीछे छूट गये, बच्चे का दारुण विलाप।
दूसरों की जिन्दगी में दाखिल हुए अपने प्रेम और चाहत के हिस्सों और अपने होने के अचरज को साथ लिये हम जायेंगे। हम सब कुछ छोड़कर यहाँ से नहीं जायेंगे।
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आज एक बार फिर मैं प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य कवि और श्रेष्ठ मंच संचालक श्री अशोक चक्रधर जी की एक लंबी कविता शेयर कर रहा हूँ| आज की रचना में उन्होंने आज के जीवन की अनेक प्रकार की विसंगतियों का विवरण दिया है| चक्रधर जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है श्री अशोक चक्रधर जी की यह कविता –
पति-पत्नी में बिलकुल नहीं बनती है, बिना बात ठनती है। खिड़की से निकलती हैं आरोपों की बदबूदार हवाएं, नन्हे पौधों जैसे बच्चे खाद-पानी का इंतज़ाम किससे करवाएं ?
होते रहते हैं शिकवे-शिकायतों के कंटीले हमले, सूख गए हैं मधुर संबंधों के गमले। नाली से निकलता है घरेलू पचड़ों के कचरों का मैला पानी, नीरस हो गई ज़िंदगानी। संबंध लगभग विच्छेद हो गया है, घर की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
सब्ज़ी मंडी से ताज़ी सब्ज़ी लाए गुप्ता जी तो खन्ना जी मुरझा गए, पांडे जी कृपलानी के फ़्रिज को आंखों-ही-आंखों में खा गए जाफ़री के नए-नए सोफ़े को काट गई कपूर साहब की नज़रों की कुल्हाड़ी, सुलगती ही रहती है मिसेज़ लोढ़ा की ईर्ष्या की काठ की हांडी।
सोने का सैट दिखाया सरला आंटी ने तो कट के रह गईं मिसेज़ बतरा, उनकी इच्छाओं की क्यारी में नहीं बरसता है ऊपर की कमाई के पानी का एक भी क़तरा।
मेहता जी का जब से प्रमोशन हुआ है, शर्मा जी के अंदर कई बार ज़बर्दस्त भूक्षरण हुआ है। बीहड़ हो गई है आपस की राम-राम, बंजर हो गई है नमस्ते दुआ सलाम।
बस ठूंठ-जैसा एक मक़सद-विहीन सवाल है— ‘क्या हाल है ?’ जवाब को भी जैसे अकाल ने छुआ है मुर्दनी अंदाज़ में— ‘आपकी दुआ है।’
अधिकांश लोग नहीं करते हैं चंदा देकर एसोसिएशन की सिंचाई, सैक्रेट्री प्रैसीडेंट करते रहते हैं एक दूसरे की खिंचाई। खुल्लमखुल्ला मतभेद हो गया है, कॉलोनी की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
बरगद जैसे बूढ़े बाबा को मार दिया बनवारी ने बुढ़वा मंगल के दंगल में, रमतू भटकता है काले कोटों वाली कचहरी के जले हुए जंगल में। अभावों की धूल और अशिक्षा के धुएं से काले पड़ गए हैं गांव के कपोत सूख गए हैं
चौधरियों की उदारता के सारे जलस्रोत। उद्योग चाट गए हैं छोटे-मोटे धंधे, कमज़ोर हो गए हैं बैलों के कंधे। छुट्टल घूमता है सरपंच का बिलौटा, रामदयाल मानसून की तरह शहर से नहीं लौटा।
सुजलाम् सुफलाम् शस्य श्यामलाम् धरती जैसी अल्हड़ थी श्यामा। सब कुछ हो गया लेकिन न शोर हुआ न हंगामा। दिल दरक गया है लाखों हैक्टेअर परती धरती की तरह श्यामा का चेहरा सफ़ेद हो गया है, गांव की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
हिन्दी नवगीत के एक प्रमुख हस्ताक्षर श्री माहेश्वर तिवारी जी का एक नवगीत आज शेयर कर रहा हूँ| श्री माहेश्वर जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है श्री माहेश्वर तिवारी जी का यह नवगीत –
आओ हम धूप-वॄक्ष काटें । इधर-उधर हलकापन बाँटें ।
अमलतास गहराकर फूले हवा नीमगाछों पर झूले, चुप हैं गाँव, नगर, आदमी हमको, तुमको, सबको भूले
हर तरफ़ घिरी-घिरी उदासी आओ हम मिल-जुल कर छाँटें ।
परछाईं आ कर के सट गई एक और गोपनता छँट गई, हल्दी के रँग-भरे कटोरे- किरन फिर इधर-उधर उलट गई
यह पीलेपन की गहराई लाल-लाल हाथों से पाटें ।
आओ हम धूप-वृक्ष काटें ।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज एक बार फिर से मैं, मेरे लिए बड़े भाई और गुरु तुल्य रहे स्वर्गीय डॉक्टर कुँवर बेचैन जी का एक नवगीत शेयर कर रहा हूँ| इस नवगीत में बेचैन जी ने निम्न मध्य वर्ग के एक साधारण व्यक्ति की मजबूरियों को उजागर किया है| बेचैन जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय डॉक्टर कुँवर बेचैन जी का यह नवगीत –
काँटों में बिंधे हुए फूलों के हार-सी लेटी है प्राण-प्रिया पत्नी बीमार-सी और मैं लाचार पति, निर्धन ।
समय-पर्यंक आयु-चादर अति अल्पकाय, सिमटी-सी समझाती जीने का अभिप्राय, आह-वणिक करता है साँसों का व्यवसाय खुशियों के मौसम में घायल त्यौहार-सी आशाएँ महलों की गिरती दीवार-सी और मैं विमूढ़मति, आँगन।
ज्योतिलग्न लौटी तम-पाहन से टकरायी हृदय-कक्ष सूना, हर पूजा भी घबरायी मृत्युदान-याचक है, जीवन यह विषपायी भस्म-भरी कालिख़ में बुझते अंगार-सी तस्वीरें मिटी हुईं टूटे श्रृंगार-सी और मैं पतझर-गति, साजन ।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज हिन्दी साहित्य के एक विराट व्यक्तित्व स्वर्गीय सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| इस कविता में एक तरह से एक मटका अपनी मालकिन- पनिहारिन से अपने मनोभाव व्यक्त कर रहा है| अज्ञेय जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है अज्ञेय जी की यह कविता –
कंकड़ से तू छील-छील कर आहत कर दे बाँध गले में डोर, कूप के जल में धर दे। गीला कपड़ा रख मेरा मुख आवृत कर दे- घर के किसी अँधेरे कोने में तू धर दे।
जैसे चाहे आज मुझे पीडि़त कर ले तू, जो जी आवे अत्याचार सभी कर ले तू। कर लूँगा प्रतिशोध कभी पनिहारिन तुझ से; नहीं शीघ्र तू द्वन्द्व-युद्ध जीतेगी मुझ से!
निज ललाट पर रख मुझ को जब जाएगी तू- देख किसी को प्रान्तर में रुक जाएगी तू, भाव उदित होंगे जाने क्या तेरे मन में- सौदामिनि-सी दौड़ जाएगी तेरे तन में;
मन्द-हसित, सव्रीड झुका लेगी तू माथा, तब मैं कह डालूँगा तेरे उर की गाथा! छलका जल गीला कर दूँगा तेरा आँचल, अत्याचारों का तुझ को दे दूँगा प्रतिफल!
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
हास्य व्यंग्य में छंदबद्ध कविता के दिग्गज कवि स्वर्गीय ओमप्रकाश आदित्य जी की एक रचना आज शेयर कर रहा हूँ| आदित्य जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
इस रचना का प्रसंग है कि एक नवयुवती छज्जे पर उदास बैठी है। उसकी मुख-मुद्रा देखकर लग रहा है कि जैसे वह छत से कूदकर आत्महत्या करने वाली है। आदित्य जी ने इस प्रसंग पर विभिन्न कवियों की शैलियों में लिखा है –
मैथिलीशरण गुप्त अट्टालिका पर एक रमिणी अनमनी सी है अहो किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी कहो? धीरज धरो संसार में, किसके नही है दुर्दिन फिरे हे राम! रक्षा कीजिए, अबला न भूतल पर गिरे।
सुमित्रानंदन पंत स्वर्ण–सौध के रजत शिखर पर चिर नूतन चिर सुंदर प्रतिपल उन्मन–उन्मन‚ अपलक–नीरव शशि–मुख पर कोमल कुंतल–पट कसमस–कसमस चिर यौवन–घट
पल–पल प्रतिपल छल–छल करती निर्मल दृग–जल ज्यों निर्झर के दो नीलकमल यह रूप चपल ज्यों धूप धवल अतिमौन‚ कौन? रूपसि‚ बोलो‚ प्रिय‚ बोलो न?
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ दग्ध हृदय में धधक रही उत्तप्त प्रेम की ज्वाला। हिमगिरि के उत्स निचोड़‚ फोड़ पाताल बनो विकराला। ले ध्वंसों के निर्माण त्राण से गोद भरो पृथ्वी की। छत पर से मत गिरो गिरो अंबर से वज्र–सरीखी।
काका हाथरसी गोरी बैठी छत्त पर‚ कूदन को तैयार नीचे पक्का फर्श है‚ भली करे करतार भली करे करतार‚ न दे दे कोई धक्का ऊपर मोटी नार कि नीचे पतरे कक्का कह काका कविराय‚ अरी! मत आगे बढ़ना उधर कूदना‚ मेरे ऊपर मत गिर पड़ना
गोपाल प्रसाद व्यास छत पर उदास क्यों बैठी है‚ तू मेरे पास चली आ री। जीवन का सुख–दुख कट जाए‚ कुछ मैं गाऊं‚ कुछ तू गा री।
तू जहां कहीं भी जाएगी‚ जीवन–भर कष्ट उठाएगी। यारों के साथ रहेगी तो‚ मथुरा के पेड़े खाएगी।
सिंहनी की ठान से‚ आन–बान–शान से। मान से‚ गुमान से‚ तुम गिरो मकान से।
तुम डगर–डगर गिरो तुम नगर–नगर गिरो। तुम गिरो‚ अगर गिरो‚ शत्रु पर मगर गिरो।
भवानीप्रसाद मिश्र गिरो! तुम्हें गिरना है तो ज़रूर गिरो पर कुछ अलग ढंग से गिरो गिरने के भी कई ढंग होते हैं! गिरो! जैसे बूंद गिरकर किसी बादल से बन जाती है मोती बख़ूबी गिरो, हँसते-हँसते मेरे दोस्त जैसे सीमा पर गोली खाकर सिपाही गिरता है सुबह की पत्तियों पर ओस की बूंद जैसी गिरो गिरो! पर ऐसे मत गिरो जैसे किसी की आँख से कोई गिरता है किसी गरीब की झोपड़ी पर मत गिरो बिजली की तरह गिरो! पर किसी के होकर गिरो किसी के ग़म में रोकर गिरो कुछ करके गिरो
गोपालदास “नीरज” यों न उदास रूपसी‚ तू मुस्कुराती जा‚ मौत में भी ज़िन्दगी के फूल कुछ खिलाती जा। जाना तो हर एक को एक दिन जहान से‚ जाते–जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा।
सुरेन्द्र शर्मा ऐ जी, के कर रही है छज्जे से नीचे कूदै है? तो पहली मंज़िल से क्यूँ कूदे चौथी पे जा! जैसे के बेरो तो लाग्ये के कूदी थी!
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
अपने समय में हिन्दी के एक प्रमुख कवि और बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ के संपादक रहे स्वर्गीय कन्हैयालाल नंदन जी की एक रचना आज शेयर कर रहा हूँ| नंदन जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय कन्हैयालाल नंदन जी का यह नवगीत –
आँखों में रंगीन नज़ारे सपने बड़े-बड़े भरी धार लगता है जैसे बालू बीच खड़े ।
बहके हुए समंदर मन के ज्वार निकाल रहे दरकी हुई शिलाओं में खारापन डाल रहे मूल्य पड़े हैं बिखरे जैसे शीशे के टुकड़े. !
नजरों के ओछेपन जब इतिहास रचाते हैं पिटे हुए मोहरे पन्ना-पन्ना भर जाते हैं बैठाए जाते हैं सच्चों पर पहरे तगड़े ।
अंधकार की पंचायत में सूरज की पेशी किरणें ऐसे करें गवाही जैसे परदेसी सरेआम नीलाम रोशनी ऊँचे भाव चढ़े ।
आँखों में रंगीन नज़ारे सपने बड़े-बड़े भरी धार लगता है जैसे बालू बीच खड़े ।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज एक बार फिर से मैं हिन्दी के सुरीले गीतकार श्री बालस्वरूप राही जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| राही जी के कुछ गीत मैंने पहले भी शेयर किए हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है श्री बालस्वरूप राही जी का यह गीत –
गाऊँ जब तक गीत मीत, तुम जगते रहना तुम मूंदोगे पलक तमिस्रा तिर आयेगी गीतों के चंदा पर बदली घिर जायेगी गीत गा रहा मैं कि तुम्हारी मेरे उर में- गाती पागल प्रीत मीत, तुम सच-सच कहना गाऊँ जब तक गीत मीत, तुम जगते रहना।
पतवारें तो साथ न प्रिय, मैं ले पाया था क्योंकि बुलाया तुमने इसीलिए आया था अब तुम कहतीं बढ़ो, बढ़ा जा रहा निरन्तर मिले हार या जीत मीत, तुम संग-संग बहना गाऊँ जब तक गीत मीत, तुम जगते रहना।
एक तुम्हारा रूप नयन में डोल रहा है अधरों पर जीवन का अमृत घोल रहा है सौ-सौ दोष लगाये जगती, या हो जाये- निठुर नियति विपरीत मीत, मेरा कर गहना गाऊँ जब तक गीत मीत, तुम जगते रहना।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)