नक़्श लायलपुरी साहब एक प्रमुख साहित्यकार और फिल्मी गीतकार रहे हैं, उनके अनेक गीत हम आज भी गुनगुनाते हैं, जैसे ‘मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूंगा सदा’, ‘कई सदियों से कई जन्मों से’ आदि-आदि|
आज उनकी एक सुंदर सी ग़ज़ल मैं शेयर कर रहा हूँ, जिसमें विभिन्न परिस्थितियों और मनः स्थितियों में आँखों की स्थिति को व्यक्त किया गया है-
तुझको सोचा तो खो गईं आँखें, दिल का आईना हो गईं आँखें|
ख़त का पढ़ना भी हो गया मुश्किल, सारा काग़ज़ भिगो गईं आँखें|
कितना गहरा है इश्क़ का दरिया, उसकी तह में डुबो गईं आँखें|
कोई जुगनू नहीं तसव्वुर का, कितनी वीरान हो गईं आँखें|
दो दिलों को नज़र के धागे से, इक लड़ी में पिरो गईं आँखें|
रात कितनी उदास बैठी है, चाँद निकला तो सो गईं आँखें|
‘नक़्श’ आबाद क्या हुए सपने, और बरबाद हो गईं आँखें|
डॉ रामदरश मिश्र जी, जिनकी रचना मैं आज शेयर कर रहा हूँ, वे हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं और कविता, कहानी तथा उपन्यास लेखन, सभी क्षेत्रों में समान रूप से सक्रिय एवं सम्मानित हैं|
आज की उनकी इस रचना में भी उन्होंने कवि की अलग प्रकार की दृष्टि और दर्शन का परिचय दिया है-
गेंदे के बड़े-बड़े जीवंत फूल बेरहमी से तोड़ लिए गए और बाज़ार में आकर बिकने लगे|
बाज़ार से ख़रीदे जाकर वे पत्थर के चरणों पर चढ़ा दिए गए, फिर फेंक दिए गए कूड़े की तरह|
मैं दर्द से भर आया और उनकी पंखुड़ियाँ रोप दीं अपनी आँगन-वाटिका की मिट्टी में, अब वे लाल-लाल, पीले-पीले, बड़े-बड़े फूल बनकर दहक रहे हैं|
मैं उनके बीच बैठकर उनसे संवाद करता हूँ, वे अपनी सुगंध और रंगों की भाषा में मुझे वसंत का गीत सुनाते हैं|
और मैं उनसे कहता हूँ — जीओ मित्रो ! पूरा जीवन जीओ उल्लास के साथ, अब न यहाँ बाज़ार आएगा और न पत्थर के देवता पर तुम्हें चढ़ाने के लिए धर्म, यह कवि का घर है !
हिंदी के एक अत्यंत श्रेष्ठ गीतकार थे श्री भारत भूषण जी, मेरठ के रहने वाले थे और काव्य मंचों पर मधुरता बिखेरते थे। मैं यह नहीं कह सकता कि वे सबसे लोकप्रिय थे, परंतु जो लोग कवि-सम्मेलनों में कविता, गीतों के आस्वादन के लिए जाते थे, उनको भारत भूषण जी के गीतों से बहुत सुकून मिलता था।
वैसे भारत भूषण जी ने बहुत से अमर गीत लिखे हैं- ‘चक्की पर गेहूं लिए खड़ा, मैं सोच रहा उखड़ा- उखड़ा, क्यों दो पाटों वाली चाकी, बाबा कबीर को रुला गई’; ‘मैं बनफूल भला मेरा, कैसा खिलना, क्या मुर्झाना’, ‘आधी उमर करके धुआं, ये तो कहो किसके हुए’ आदि-आदि।
आज जो गीत मुझे बरबस याद आ रहा है वह एक ऐसा गीत है, जिसमें वे लोग जो जीवन में मनचाही उपलब्धियां नहीं कर पाते, असफल रहते हैं, वे अपने आप को किस तरह समझाते हैं, बहुत सुंदर उपमाएं दी हैं इस गीत में भारत भूषण जी ने, प्रस्तुत यह गीत-
तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा, धरती के कागज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी।
रेती पर लिखे नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था, मलयानिल के बहकाने पर, बस एक प्रभात निखरना था, गूंगे के मनोभाव जैसे, वाणी स्वीकार न कर पाए, ऐसे ही मेरा हृदय कुसुम, असमर्पित सूख बिखरना था।
जैसे कोई प्यासा मरता, जल के अभाव में विष पी ले, मेरे जीवन में भी ऐसी, कोई मजबूरी रहनी थी। धरती के कागज़ पर मेरी तस्वीर अधूरी रहनी थी॥
इच्छाओं के उगते बिरुवे, सब के सब सफल नहीं होते, हर एक लहर के जूड़े में, अरुणारे कमल नहीं होते, माटी का अंतर नहीं मगर, अंतर रेखाओं का तो है, हर एक दीप के हंसने को, शीशे के महल नहीं होते।
दर्पण में परछाई जैसे, दीखे तो पर अनछुई रहे, सारे सुख वैभव से यूं ही, मेरी भी दूरी रहनी थी। धरती के कागज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी॥
मैंने शायद गत जन्मों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे, चातक का स्वर सुनने वाले, बादल वापस मोड़े होंगे, ऐसा अपराध किया होगा, जिसकी कुछ क्षमा नहीं होती, तितली के पर नोचे होंगे, हिरणों के दृग फोड़े होंगे।
मुझको आजन्म भटकना था, मन में कस्तूरी रहनी थी। धरती के कागज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी।।
इस गीत के साथ मैं उस महान गीतकार का विनम्र स्मरण करता हूँ।
हिन्दी कवि सम्मेलनों के मंचों पर किसी समय हरिवंशराय बच्चन जी का ऐसा नाम था, जिसके लोग दीवाने हुआ करते थे| वह उनकी मधुशाला हो या लोकगीत शैली में लिखा गया उनका गीत- ‘ए री महुआ के नीचे मोती झरें’, ‘अग्निपथ,अग्निपथ,अग्निपथ’ आदि-आदि|
एक बात माननी पड़ेगी मुझे उनको कवि-सम्मेलन में साक्षात सुनने का सौभाग्य नहीं मिला, हाँ एक बार आकाशवाणी में उनका साक्षात्कार हुआ था, जिसके लिए मैं अपने प्रोफेसर एवं कवि-मित्र स्वर्गीय डॉ सुखबीर सिंह जी के साथ उनको, नई दिल्ली में उनके घर से लेकर आया था, और इंटरव्यू के दौरान स्टूडिओ में उनके साथ था|
लीजिए प्रस्तुत है बच्चन जी का यह खूबसूरत गीत-
कोई पार नदी के गाता!
भंग निशा की नीरवता कर, इस देहाती गाने का स्वर, ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता! कोई पार नदी के गाता!
होंगे भाई-बंधु निकट ही, कभी सोचते होंगे यह भी, इस तट पर भी बैठा कोई उसकी तानों से सुख पाता! कोई पार नदी के गाता!
आज न जाने क्यों होता मन सुनकर यह एकाकी गायन, सदा इसे मैं सुनता रहता, सदा इसे यह गाता जाता! कोई पार नदी के गाता!
एक समय था जब दिल्ली में रहते हुए कवि सम्मेलनों, कवि गोष्ठियों आदि के माध्यम से अनेक श्रेष्ठ कवियों को सुनने का मौका मिलता है| अब वैसा माहौल नहीं रहा, एक तो ‘कोरोना’ ने भी बहुत कुछ बदल दिया है|
हाँ तो पुराने समय के काव्य-मंचों पर उभरने वाले बहुत से कवि, जिनकी कविताएं मैं शेयर करता रहा हूँ, उनमें से जो नाम मुझे आज याद आ रहा है, वे हैं स्वर्गीय शिशुपाल सिंह निर्धन जी, लीजिए आज उनका एक सुंदर गीत शेयर कर रहा हूँ-
अगर चल सको साथ चलो तुम, लेकिन मुझसे यह मत पूछो, कितने चलकर आए हो तुम, कितनी मंज़िल शेष रह गई?
हम तुम एक डगर के राही आगे-पीछे का अन्तर है, धरती की अर्थी पर सबको मिला कफ़न यह नीलाम्बर है । अगर जल सको साथ जलो तुम, लेकिन मुझसे यह मत पूछो, अभी चिताओं के मेले में कितनी हलचल शेष रह गई ?
मुझे ओस की बूंद समझकर प्यासी किरन रोज़ आती है, फूलों की मुस्कान चमन में फिर भी मुझे रोज़ लाती है । तड़प सको तो साथ तड़प लो, लेकिन मुझसे यह मत पूछो, कितनी धरा भिगोई तुमने कितनी मरुथल शेष रह गई ?
अवनी पर चातक प्यासे हैं अम्बर में चपला प्यासी है, किसकी प्यास बुझाए बादल ये याचक हैं, वह दासी है । बनो तृप्ति बन सको अगर तुम, लेकिन मुझसे यह मत पूछो, कितनी प्यास बुझा लाए हो, कितनी असफल शेष रह गई ?
जीवन एक ग्रंथ है जिसका सही एक अनुवाद नहीं है, तुम्हें बताऊँ कैसे साथी अर्थ मुझे भी याद नहीं है ? बुझा सको तो साथ बुझाओ, लेकिन मुझसे यह मत पूछो, मरघट के घट की वह ज्वाला, कितनी चंचल शेष रह गई ?
घाट-घाट पर घूम रहे हैं भरते अपनी सभी गगरिया, बदल-बदल कर ओढ़ रहे हैं अपनी-अपनी सभी चदरिया । ओढ़ सको तो साथ ओढ़ लो, लेकिन मुझसे यह मत पूछो, कितने दाग़ लगे चादर में, कितनी निर्मल शेष रह गई ?
आज हिन्दी साहित्य के एक विराट व्यक्तित्व – सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ|
अज्ञेय जी ने वैसे तो साहित्य की हर विधा में अपनी छाप छोड़ी है परंतु हिन्दी कविता को नया स्वरूप प्रदान करने वालों में उनकी प्रमुख भूमिका थी|
लीजिए प्रस्तुत है अज्ञेय जी की एक कविता-
सागर के किनारे तनिक ठहरूँ, चाँद उग आये, तभी जाऊँगा वहाँ नीचे कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे। चाँद उग आये। न उसकी बुझी फीकी चाँदनी में दिखें शायद
वे दहकते लाल गुच्छ बुरूँस के जो तुम हो। न शायद चेत हो, मैं नहीं हूँ वह डगर गीली दूब से मेदुर, मोड़ पर जिसके नदी का कूल है, जल है, मोड़ के भीतर-घिरे हों बाँह में ज्यों-गुच्छ लाल बुरूँस के उत्फुल्ल।
न आये याद, मैं हूँ किसी बीते साल के सीले कलेंडर की एक बस तारीख, जो हर साल आती है। एक बस तारीख-अंकों में लिखी ही जो न जावे जिसे केवल चन्द्रमा का चिह्न ही बस करे सूचित-
हिन्दी के एक प्रतिष्ठित और लोकप्रिय गीतकार हैं स्वर्गीय रमानाथ अवस्थी जी का एक और गीत आज शेयर कर रहा हूँ| अवस्थी जी मन के बहुत सुकोमल भावों को बहुत बारीकी से अभिव्यक्त कराते थे और कवि सम्मेलनों में बहुत लोकप्रिय थे|
जैसा कहते हैं, जीवन का नाम ही चलना है, हम एक जगह नहीं ठहर सकते, बहुत से दायित्व, वचन बद्धताएँ हमें निरंतर पुकारती रहती हैं| लीजिए इसी संदर्भ में इस रचना का आनंद लीजिए-
रोको मत जाने दो जाना है दूर|
वैसे तो जाने को मन ही होता नहीं, लेकिन है कौन यहाँ जो कुछ खोता नहीं तुमसे मिलने का मन तो है मैं क्या करूँ? बोलो तुम कैसे कब तक मैं धीरज धरूँ । मुझसे मत पूछो मैं कितना मज़बूर ।
रोको मत जाने दो जाना है दूर|
अनगिन चिंताओं के साथ खड़ा हूँ यहाँ पूछता नहीं कोई जाऊँगा मैं कहाँ ? तन की क्या बात मन बेहद सैलानी है कर नहीं पाता मन अपनी मनमानी है । दर्द भी सहे हैं होकर के मशहूर|
रोको मत जाने दो जाना है दूर|
अब नहीं कुछ भी पाने को मन करता कभी-कभी जीवन भी मुझको अखरता| साँस का ठिकाना क्या आए न आए यह बात कौन किसे कैसे समझाए| होना है जो भी वह होगा ज़रूर ।
हिन्दी के एक प्रतिष्ठित नवगीतकार हैं श्री ओम प्रभाकर जी, जिन्होंने अनेक प्रसिद्ध रचनाएँ दी हैं| आज उनकी जो रचना मैं शेयर कर रहा हूँ, वह मानव जीवन में निरंतर चल रहे संघर्ष को अभिव्यक्त करती है|
एक संघर्ष तो व्यक्ति के जीवन में चलता है और एक पीढ़ी दर पीढ़ी भी चलता जाता है| मानव जाति का भी एक संघर्ष है, जो हर पीढ़ी को आगे बढ़ाना होता है| लीजिए इसी संदर्भ में इस रचना का आनंद लीजिए-
हम जहाँ हैं वहीं से आगे बढ़ेंगे, देश के बंजर समय के बाँझपन में, याकि अपनी लालसाओं के अंधेरे सघन वन में|
या अगर हैं परिस्थितियों की तलहटी में, तो वहीं से बादलों के रूप में ऊपर उठेंगे, हम जहाँ हैं वहीं से आगे बढ़ेंगे|
यह हमारी नियति है चलना पड़ेगा, रात में दीपक दिवस में सूर्य बन जलना पड़ेगा|
जो लड़ाई पूर्वजों ने छोड़ दी थी हम लड़ेंगे, हम जहाँ हैं वहीं से आगे बढ़ेंगे|
आज फिर से मैं हिन्दी काव्य मंचों के एक प्रमुख हस्ताक्षर रहे स्वर्गीय रमानाथ अवस्थी जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| इस रचना में अवस्थी जी ने यही व्यक्त किया है कि हमारी व्यक्तिगत आस्थाएँ, आकांक्षाएँ और धार्मिक रुझान कुछ भी हों, हमारे लिए सबसे पहले देश का स्थान है|
लीजिए प्रस्तुत है स्वर्गीय रमानाथ अवस्थी जी की यह रचना-
जो आग जला दे भारत की ऊँचाई, वह आग न जलने देना मेरे भाई ।
तू पूरब का हो या पश्चिम का वासी तेरे दिल में हो काबा या हो काशी तू संसारी हो चाहे हो सन्यासी तू चाहे कुछ भी हो पर भूल नहीं तू सब कुछ पीछे, पहले भारतवासी ।
उन सबकी नज़रें आज हमीं पर ठहरीं जिनके बलिदानों से आज़ादी आई ।
जो आग जला दे भारत की ऊँचाई, वह आग न जलने देना मेरे भाई ।
तू महलों में हो या हो मैदानों में तू आसमान में हो या तहखानों में पर तेरा भी हिस्सा है बलिदानों में यदि तुझमें धड़कन नहीं देश के दुख की तो तेरी गिनती होगी हैवानों में ।
मत भूल कि तेरे ज्ञान सूर्य ने ही तो दुनिया के अँधियारे को राह दिखाई ।
जो आग जला दे भारत की ऊँचाई, वह आग न जलने देना मेरे भाई ।
तेरे पुरखों की जादू भरी कहानी गौतम से लेकर गाँधी तक की वाणी गंगा जमना का निर्मल-निर्मल पानी इन सब पर कोई आँच न आने पाए सुन ले खेतों के राजा, घर की रानी ।
भारत का भाल दिनों-दिन जग में चमके अर्पित है मेरी श्रद्धा और सच्चाई ।
जो आग जला दे भारत की ऊँचाई, वह आग न जलने देना मेरे भाई ।
आज़ादी डरी-डरी है आँखें खोलो आत्मा के बल को फिर से आज टटोलो दुश्मन को मारो, उससे मत कुछ बोलो स्वाधीन देश के जीवन में अब फिर से अपराजित शोणित की रंगत को घोलो ।
युग-युग के साथी और देश के प्रहरी नगराज हिमालय ने आवाज़ लगाई ।
जो आग जला दे भारत की ऊँचाई, वह आग न जलने देना मेरे भाई ।